________________
परवती ग्रन्थकारों... अर्थात् पक्षबहिर्देश महानसादि में गृहोत अग्निसामान्य के साथ धूम की व्याप्ति के बल से अग्निसामान्य की सिद्धि होती है और पक्षान्तदेश में उपलभ्यमान व्याप्ति से पक्षवृत्ति अग्निविशेष की सिद्धि ।
(ड) व्याप्ति का स्पष्टीकरण करते हुए चिन्नंभट्ट ने कहा है कि व्याप्ति से व्याप्यव्यापकभाव बतलाना अभीष्ट है । व्याप्यव्यापकभाव दो प्रकार का होता हैअन्वयरूप और व्यतिरेकरूप । इस प्रसंग में चिन्नंभट्ट ने भूषणकार भासर्वज्ञ को उद्धृत करते हुए कहा है-तथा च भूषणे भासर्वज्ञप्रन्थः । तत्र साधनसामान्य व्याप्यं साध्य सामान्य व्यापकमित्यय व्याप्यमापकभावोऽन्धयः । साध्यसामान्यभावो व्याप्यः साधनसामान्याभावो व्यापक इत्ययं व्याप्यव्यापकभावो व्यतिरेकः ।"
किरावलीकार उदयनाचार्य ने कर्म के गुणान्तर्भाव के लिये भासर्वज्ञ को साधुवाद दिया है-'तस्माद् वरं भूषणः कर्माणि गुणस्तल्लक्षणयोगात्' ।'
भासज्ञ ने सूत्रकारसरणि से विलग होकर मोक्ष में नित्यसुखाभिव्यक्ति मानी है। उनकी यह मान्यता भी परवर्ती ग्रन्थकारों की विशेष चर्चा का विषय बनी । वादिदेव सूरि कहते हैं- भूषणोऽपि मोक्षे सुखतत्संवेदनसनाथमात्मानमातिष्ठमानोऽस्मदनुचर एवं' । अर्थात् मोक्षदशा में सुख व सुखज्ञानसहित आत्मा की स्थिति मानते हुए भूषणकार भासर्वज्ञ ने हमारे (जैन) मत को स्वीकार किया है, क्योंकि हम भी मोक्ष में आत्मा का सुख व सुखज्ञानयुक्त स्थिति मानते हैं।
तर्कभाषाप्रकाशिकाकार ने भासर्वज्ञ के कतिपय मतों का खण्डन भी किया है। प्रकरणसम हेत्वाभास नैयायिकों को मान्य है। भासर्वज्ञ के अनुसार स्वपक्ष तथा परपक्ष की सिद्धि में त्रिरूप हेतु प्रकरणसम हेत्वाभास कहलाता है। परन्तु चिन्नंभट्ट को यह स्वीकार्य नहीं, अतः असहमति व्यक्त करते हुए कहते हैं-'स्वपरपक्षसिद्धावपि त्रिरूपो हेतुः प्रकरणसम इति भूषणकारो बभाषे तदसंभवि । एकस्य हेतोरुभयत्र त्रैरूप्यासंभवात् । तस्मात् प्रतिज्ञातार्थ वपरीतार्थज्ञापकहेमान् हेतुः प्रकरणसमः' ।
तार्किकरक्षासारसंग्रह में वरदराज ने भी प्रकरणसम हेत्वाभास का भासर्वज्ञाभिमत लक्षण उदाह्रत किया है-'एकदेशिनस्तु स्वपक्षपरपक्षसिद्धावपि त्रिरूपो हेतुः प्रकरणसम इति लक्षयन्ति उदाहरन्ति च। यहां 'एकदेशिनः' शब्द से भूषणकार भासर्वज्ञ ही अभिप्रेत है, जैसाकि ताकिकरक्षा के टीकाकार मल्लिनाथ ने 'अत्र भूषणोक्तं लक्षणं दूषयितुमनुभाषते'' इस कथन से स्पष्ट हो जाता है। 1 तर्कभाषाप्रकाशिका, पृ. १४२ 2 किरणावली, पृ. १०४. 3. Thakur. A. L., Nyayabhāsana ~A Lost Work on Medieval Indian
Logic, JBRS. Vol, XLV, p. 97, Footnote No. 51. 4. न्यायसार, पृ. ७.
6. तार्किकरक्षा, प. २२३. 5. तर्कभाषाप्रकाशिका, पृ. १५६. 7. वही, पृ. २१२-२२३. भान्या-३०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org