Book Title: Bhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Author(s): Ganeshilal Suthar
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 249
________________ २३४ न्यायसार ___ भासर्वज्ञ ने प्रमाण सामान्य का लक्षण-'सम्यगनुभवसाधनं प्रमाणम्'' यह किया है। इस प्रमाणलक्षण से ज्ञात होता है कि नैयायिकपरम्परा के अनुसार भामर्वज्ञ ने भी प्रमाण को ज्ञानरूप तथा ज्ञानभिन्नस्वरूप माना है । जैन दार्शनिक हेमचन्द्र ने वातिककारादि नैयायिकों के प्रमाणलक्षण का खण्डन करते हुए भासर्वज्ञोक्त प्रमाणलक्षण को उद्धृत कर यह कहा है कि इस लक्षण के अनुसार भी जिसके व्यापार के अव्यवहित काल में फलनिष्पत्ति हो, वह साधकतम अर्थात् साधन कहलाता है और ज्ञान के उत्तरकाल में ही प्रमारूप फल की निष्पत्ति होती है, अतः ज्ञान व अज्ञान दोनों प्रकार के प्रमाणसाधनों को प्रमाण न मानकर ज्ञान को ही प्रमाण मानना चाहिये ।' स्याद्वादमंजरीकार श्री मल्लिषेण सूरि ने भी मासर्वज्ञ के प्रमाणलक्षण में दोषोद्भावन करते हुए उनके मत को उद्धृत किया है । जैसे-'यदपि न्यायभूषणसूत्रकारेणोक्तं सम्यगनुभवसाधनं प्रमाणमिति तत्राप साधनग्रहणात् कर्तृकर्मनिरासेन करणस्यैव प्रमाणत्वं सिध्यति । तथाप्यव्यवहितफलत्वेन साधकतमत्वं ज्ञानस्यैवेति न तत्सम्यग् लक्षणम् । स्वपरव्यवसायि ज्ञानं प्रमाणात तु तात्त्विक लक्षणम्' । वस्तुस्थिति यह है कि जैन दार्शनिकों ने प्रमाण को एकान्ततः ज्ञानरूप माना है, परन्तु भासज्ञ ऐसा नहीं मानते । आपेक्षिक दृष्टि से 'अर्थोपलब्धिहेतुः प्रमाणम्' इस वातिककारोक्त प्रमाणलक्षण से भासर्वज्ञोक्त प्रमाणलक्षण अधिक परिष्कृत है, क्योंकि वार्तिककारोक्त प्रमाणलक्षण अतिव्यापक है, उसमें कर्ता, कर्म तथा करण तीनों का समावेश हो जाता है। भासर्वज्ञोक्त प्रमाणलक्षण में साधन शब्द का प्रयोग होने के कारण प्रमाता और प्रमेय में उसकी अतिप्रसक्ति नहीं है । परन्तु एकान्ततः ज्ञानरूप न होने से जैन दार्शनिक उसे भी स्वीकार नहीं करते ।। शुद्ध नैयायिक होने के कारण भासर्वज्ञ ने न्यायशास्त्र को वैशेषिकप्रभाव से मुक्त करने का प्रयास किया । उन्होंने न्यायभूषण में स्पष्ट घोषणा की है कि उनका उद्देश्य है -न्यायशास्त्र का व्यारूयान । अतः वैशेपिक-शास्त्र से न्यायशास्त्र का विरोध दोषजनक नहीं हो सकता । पूर्ववर्ती न्यायाचार्यो द्वारा स्वीकृत तथा अन्य वैशेषिकसिद्धान्तों का उन्होंने खण्डन किया है। परवर्ती अनेक वैशेषिक आचार्यों ने भासर्वज्ञकृत वैशेषिक-खण्डन का निराकरण किया है । 1. न्यायसार, पृ. १. 2. सम्यगनुभवसाधनं प्रमाणम्' इत्यत्रापि साधन ग्रहणात् कत'कर्मनिरासेन कारणस्य प्रमाणत्वं सिध्यति, तथाप्यव्यवहितफलत्वेन साधकतमत्वं ज्ञानस्यैवेति तदेव प्रमाणत्वेनेष्टव्यम् । -प्रमाणमीमांसा, पृ. ७. 3. स्याद्वादमंजरी, पृ. ५७. 4. न्यायशास्त्रं च व्याख्यातुं वयं प्रवृत्तास्तेनास्माकं शेषिकतन्त्रेण विरोधो न दोषाय । -न्यायभूषण, पृ. १६३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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