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प्रमेयनिरूपण
२२१ हो जाती है ।1 उपासनाविधि का यद्यपि न्यायदर्शन में प्रतिपादन नहीं किया गया हैं, तथापि पातंजलादि शास्त्रों में उपदिष्ट उपायों का ही अवलम्बन 'परमतमप्रतिषिद्धि मनुमतम्' इस तन्त्रयुक्ति के अनुसार यहां गृहीत है। जैसे सांख्यदर्शन में आचारविधि का प्रतिपादन नहीं किया गया है, अतः उसमें योगशास्त्रप्रतिपादित अष्टांगयोगविधि का का मोक्षोपायरूप से ग्रहण है। कुछ विद्वान् तो ऐसा मानते हैं कि सांख्ययोग दोनों मिलकर एक दर्शन है । सांख्य में तत्त्वमीमांसा और प्रमाणमीमांसा का प्रतिपादन है
और योग में मोक्षोपयोगी आचारमीमांसा का । इसी प्रकार न्यायदर्शन में भी मोक्ष. प्राप्ति के लिये स्वतन्त्र आचारभीमांसा का प्रतिपादन नहीं किया गया है, किन्तु सूत्रकार ने 'योगाच्चाध्यात्मविध्युपायैः' इस सूत्र से संकेत कर दिया है कि मोक्षसाक्षात्कार के लिये परमात्मोपासनविधिरूप आचारमीमांसा का योगदर्शन से ग्रहण करना चाहिए । भासर्वज्ञ ने तदनुसार ही परमात्मोपासन-विधि के उपायों का निरूपण किया है। परमात्मा की उपासना क्यों की जाती है, यह बतलाते हए भासर्वज्ञ ने 'क्लेशतनूकरणार्थः समाधिभावनाथश्च' इस योगसूत्र के अनुसार क्लेशकारी कर्मों का नाश तथा समाधि को प्राप्त उपासना का प्रयोजन बतलाया है और 'तपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानि क्रियायोगः' इस क्रियायोग को ही उपासनाविध कहा है। 'समाधिभावनार्थः क्लेशतनूकरणार्थश्च इस पातंजल सूत्र द्वारा प्रदर्शित क्रम में भासर्वज्ञ ने अर्थानुसार परिवर्तन किया है, क्योंके पहिले क्लेशों का तनूकरण होता है, तभी समाधिभावना हो सकती है । 'तपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः' का निरूपण करते हुए उन्माद, काम आदि की निवृत्ति के लिये आध्यात्मिकादि दुःखों की सहनशीलता को तप, ईश्वरवाची प्रणव के अभ्यास को स्वाध्याय तथा अविच्छेदेन परमेश्वर तत्त्व के चिन्तन का ईश्वर-प्राणिधान कहा है।
योगदर्शन में अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः पंचक्लेशाः' इस सूत्र के अनुसार जिन क्लेशों का नाश करना है, उनका अविद्यादिभेद से पांचविध्य बतलाया है, किन्तु भासर्वज्ञ ने न्यायपद्धति के अनुसार क्लेश के.संक्षेपतः रोग, द्वेष, मोह तीन भेद ही माने हैं, क्योंकि 'तत् त्रैराश्य रागद्वेषमोहार्थान्तरभावात्'' न्यायसूत्र में तीन क्लेशों का ही परिगणन किया गया है । ये तीनों समाधि के विरोधी हैं और
1. न्यायसार, पृ. ३९ 2. न्यायसूत्र, ४२१४६ 3. योगसूत्र, २१ 4. वही, २१२ 5. न्यायभूषण, प्र.
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6. योगसूत्र, २॥३........... 7. न्यायसूत्र, ११३
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