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न्यायसार
मुक्तावस्था तथा संसारावस्था में कोई भेद नहीं रहेगा, यह शंका भी अनुपपन्न है, क्वोंकि जैसे चक्षु और घट के बीच में कुड्यादि का व्यवधान होने पर उन दोनों के विद्यमान होने पर भी घट का ज्ञान नहीं होता, उसी प्रकार सुख सुखज्ञान दोनों के नित्य होने पर भी संसारदशा में उन दोनों के विषयविषयिभाव सम्बन्ध के विरोधी अधर्मादि के कारण दुःख होने से उसका भान नहीं होता और मुक्त्यवस्था में उस सम्बन्ध के प्रतिबन्धक अधर्मादि का नाश हो जाने से भान हो जाता है । जैसे, कुड्यादि का व्यवधान हट जाने पर चक्षु और घट का सम्बन्ध हो जाने से चक्षु द्वारा घट का ज्ञान हो जाता है।
यद्यपि अधर्मादि अमूर्त होने से कुड्यादि की तरह व्यवधायक वस्तु नहीं है, अतः दृष्टान्त में विषमता है, तथापि जिस प्रकार कुइय चक्षु तथा घट के सम्बन्ध का प्रतिबन्धक है, वैसे ही नित्य सुख व उसके ज्ञान के विषयविषयिभावसम्बन्ध के अधर्मादि प्रतिबन्धक है । अतः प्रतिबन्धकत्वसाम्य के कारण कुड्यादि का दृष्टान्त दिया गया है। इसलिए मोक्षकाल में नित्य सुख तथा उसके ज्ञान का सम्बन्ध अधर्मादि प्रतिबन्धकों के द्वारा जन्य है, किन्तु किती विनाशकारण के न होने से वह नष्ट नहीं होता और इस प्रकार मोक्षदशा में नेत्य सुख की अभिव्यक्ति सदा बनी रहेगी । मोक्ष में नित्यसुखाभिव्यक्ति के संभव होने से तथा श्रुतिस्मृत्यादि प्रमाणों द्वारा उस दशा में नित्य सुख की अभिव्यक्ति के सिद्ध होने से नित्यसुखाभिव्यक्तिविशिष्ट दुःखनिवृत्ति ही मोक्ष है, यह निर्विवाद सिद्ध है।
ऐसा प्रतीत होता है कि नैयायिक प्रारम्भ मे मोक्ष में नित्य सुखाभिव्यक्ति मानते थे, जैसाकि उपलभ्यमान कुछ उक्तियों से सिद्ध होता है। वे उक्तियां निम्नलिखित हैं
'दुःखाभावो हि नावेद्यः पुरुषार्थतयेष्यते ।
न हि मूर्छाद्यवस्यार्थ प्रवृत्तो दृश्यते सुधी ।।' अर्थात् अज्ञायमान दुःखात्यन्तनिवृत्ति को मोक्षरूप पुरुषार्थ नहीं माना जा सकता; क्योंकि केवल दुःखनिवृत्ति को मोक्ष मानने पर मोक्षकाल में आत्ममन:संयोगजन्य सुख, दुःख, ज्ञान आदि सभी विशेष गुणों का उच्छेद होने पर मूर्छादिसदृश स्थिति हो जाती है । अतः इसे मोक्ष मानना अनुचित है।
यह एक प्राचीन कारिका भी मिलती है, जिसे न्यायभूषण तथा सदानन्दकृत अद्वैतब्रह्मसिद्वि आदि में उद्धृत किया गया है
'वरं वृन्दावने रम्ये शृगालत्वं वृणोम्यहम् ।
__ न तु निर्विषयं मोक्षं गौतमो गन्तुमिच्छति ॥'' अ), ब) उस उक्ति से यह स्पष्ट सिद्ध है कि सकलात्मगुणविशेषोच्छेद को गौतम मुक्ति कभी स्वीकार नहीं करता ।
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