Book Title: Bhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Author(s): Ganeshilal Suthar
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 243
________________ २२८ न्यायसार अभिप्राय से सूत्रकार ने ‘तदत्यन्तविमोक्षोऽपवर्गः'1 इस सूत्र के द्वारा दुःखात्यन्त. विमोक्ष को अपवर्ग कहा है। अपर्ग शब्द का प्रयोग भी यह सिद्ध कर रहा है कि सूत्रकार तत्त्वज्ञान से मिथ्याज्ञान नेवृत्ति द्वारा अपवर्जनीय वस्तु का निर्देश कर रहे हैं और वह अपवर्जनोय वस्तु दुःख ही है । अतः सूत्रकार का दुःखात्यन्तविमोक्ष को अपर्ग तथा तत्त्वज्ञान का फल बतलाना सर्वथा समीचीन है। वेदान्त ने भी ब्रह्मात्मैक्यज्ञान से अज्ञान की निवृत्ति तथा तज्जन्य अनर्थरूप अपंच की निवृत्त ही शास्त्र का प्रयोजन माना है, आत्मरूप सुख की अभिव्यक्ति को नहीं । आत्मसुख तो नित्य है, वह अज्ञान से अभिभूत रहता है । ज्ञान द्वारा अज्ञान को निवृत्ति हो जाने से उसकी आंभव्यक्ति नित्यासद्ध हाने से स्वतःसिद्ध है। इसी प्रकार न्यायमत में दुःखात्यन्तनिवृत्ति हो जाने पर नित्यसुखाभिव्यक्ति के प्रतिबन्धक दुःख की निवृत्ति हो जाने से नित्य सुखाभिव्यक्ति स्वतःसिद्ध है। सूत्रकार ने कहीं भी नित्य सुखाभिव्यक्ति का मोक्ष में निषेध नहीं किया है। अतः सूत्रकार दु.खात्यन्तनिवृत्तिसहित नित्य सुखाभिव्यक्ति को हो मोक्ष मानते हैं। गौतम ने यह भी कहो नहीं बतलाया है कि मोक्षदशा में आत्सा के सकल विशेष गुणों का उच्छेद हो जाता है । अतः मोक्षदशा में नित्य सुखभान मानने में सूत्रकार का किसी भी र का विरोध नहीं. अपित उपर्यत उपलभ्यमान मोक्षविषयक कारिकाओं से नित्य सुखाभिव्यक्तिरूप मोक्ष में उनकी सम्मति ही उपलब्ध होती है। सूत्रकार के बाद कालप्रभाव से वैशेषिकमत के प्रभाव के कारण न्यायभाष्यकारादि ने कणादमम्मत मोक्षस्वरूप अपना लिया और महान संरम्भ के साथ उसी को एकान्ततः मोक्ष का स्वरूप मानते हुए नित्यसुखाभिव्यक्तिरूप मोक्ष का प्रत्याख्यान किया। किन्तु आचार्य भासर्वज्ञ ने अपनी प्रतिभा के बल पर उस मत का पुनः उज्जीवन किया । अतः भासर्वज्ञ के न्यायसार में 'एके तावद् वर्णयन्ति सकलविशेषगुणोच्छेदे संहारावस्थायामाकाशवदात्मनोऽत्यन्तावस्थान मोक्षः' इस वाक्य में 'एके' पद से वैशेषिकों तथा तथा वैशेषिकानुयायी भाष्यकारादि का ग्रहण उचित है तथा 'मोहाद्यवस्थात्वान्मूर्छाद्यवस्थावदत्र विवेकिनां प्रवृत्तिने त्याहुरन्ये' इस वाक्य में 'अन्ये' पद से आचार्य गौतम तथा तन्मतानुयायी भासर्वज्ञादि का ग्रहण है । 'अन्ये' पद से गृहीत आचार्यो का मत ही वास्तविक न्यायमत है । इसलिये भासर्वज्ञ ने 'अन्ये' मत को न्याय का मत मानते हुए 'मोक्षे सुखाभिव्यक्तिरिति न्यायमतम्' वाक्य का प्रयोग किया है और यहो गौतम को अभिप्रेत है, इस तथ्य को पुष्टि के लिये "वरं वृन्दावनेरम्ये शुगालत्वं वृणोभ्यहम् । न तु निविषय मोक्ष गौतमो गन्तुमिच्छाते ॥" यह वचन उद्धत किया है। अतः भासर्वज्ञ के अनुसार आनन्दसवित्सहित दुःखात्यन्तनिवृत्ति हो मोक्ष है, यह मत ही न्यायमत है, न कि केवल दुःखात्यन्तनिवृत्ति । 1. न्यायसूत्र, १111२२ 2. तत्सिबमेलस् नित्यसंवेद्यमानेन सुखेन विशिष्टा आत्यन्तिकी दुःख निवृत्तिः पुरुषस्य मोक्ष इति । -न्यायसार, ३. १० 3. न्यायसार, पृ. ३९-१० 4. न्यायभूषण, पृ. ५९४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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