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अपवर्ग निरूपण
२२५ 'आमन्द ब्रह्मणो विद्वान् । न बिभेति कदाचनेति ।1 'आनन्दं ब्रह्मणो रूपं तच्च मोक्षेऽभिलक्ष्यते ।
‘विज्ञानमानन्दं ब्रह्म । उपर्युक्त श्रुतिस्मृतियों में प्रतिपादित सुख को 'भाराद्यपगमे सुखी संवृत्तः' की तरह लक्षणया दुःखाभावपरक मानना असंगत है, क्योंकि लक्षणा मुख्यार्थ का बाध होने पर होती है और इन श्रुतियों में मुख्यार्थ सुख का बाध नहीं है। भाराकान्त पुरुष के भार के दूर हो जाने पर शीतल-मन्द-सुगन्धित वायु के सम्पर्क से ही उसको सुख होता है, इसी.लये वहां सुखी शब्द का प्रयोग किया गया है, न कि दुःखाभाव के कारण । दुःखाभाव ही सुख है, यह भी संगत नहीं । अन्यथा सामान्य आहार से बुभुक्षाजन्य दुःख की निवृत्ति हो जाने पर आहारविशिष्ट से विशेष आनन्द की प्राप्ति पुरुष को नहीं होनी चाहिए । इसीलिये अभियुक्तों ने कहा है
"दुःखाभावोऽपि नाऽवेद्यः पुरुषार्थतयेष्यते ।
न हि मूर्छाद्यवस्थार्थ प्रवृत्तो दृश्यते सुधीः ॥4 अपि च, मोक्षदशा में सुखाभिव्यक्ति न मानने पर केवल दुःखाभाव में सुख शब्द का प्रयोग मानना होगा, जो कि गौण प्रयोग है और असंगत है, क्योंकि मुख्यार्थबाध के बिना गौण प्रयोग मानने में कोई कारण नहीं। तथा मोक्षदशा में ज्ञानादि सकल विशेष गुणों का अभाव मानने पर दुःखाभाव का भी ज्ञान न होने से अज्ञात अर्थ में गौण प्रयोग भी अनुपपन्न है । सुषुप्त्यवस्था में ज्ञान न होने पर भी जैसे 'सुखमहमस्वाप्सम्' इस प्रकार दुःखभाव में सुख शब्द का प्रयोग होता है, उसी प्रकार मोक्षदशा में भी हो जायेगा, यह कहना भी संगत नहीं, क्योंकि सुषुप्त्यवस्था में ज्ञानाभाव की सिद्धि में कोई प्रमाण नहीं । प्रत्युत जागरणानन्तर 'सुखमहमस्वाप्सम्' इत्याकारक स्मृति के बल से सुषुप्ति में सुख तथा सुखज्ञान दोनों मानमे पडते हैं । सुषुप्त्यवस्था में सुख का ज्ञान मानने पर सुषुप्ति और मोक्ष का कोई भेद नहीं रहेगा, क्योंकि मोक्ष में नित्य सुख को अभिव्यक्ति मानने वालों के मत में मोक्ष में भी सुख और सुखज्ञान है तथा सुषुप्ति में भी, यह कथन भी अविचारिसरमणीय है, क्योंकि सुषुप्त में सुखमात्र का ज्ञान होता है, चाहे वह नित्य हो अथवा निद्रासहकृत धर्मविशेष से जन्य हो, किन्तु मोक्ष में नित्य सुख का हा ज्ञान होता है, अतः दोनों मे भेद है।
मोक्ष में नित्य सुखाभिव्यक्ति मानने पर सुख तथा ज्ञान दोनों के नित्य होने से संसारावस्था में भी उस सुख का भान होना चाहिए और ऐसा मानने पर 1. तैत्तिरीयोपनिषक, ३/४ 2. न्यायसार से उधृत, पृ. ४० 3. बृहदारण्यकोपनिषद्, ३/६/२८ 4. न्यायभूषण से उधृत, पृ. ५९६
भान्या-२९
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