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- न्यायसार अपरात्मविचार सुख-दुःखरूप फल का भोक्ता जीव अपरात्मा है। वह अनन्त अर्थात अविनाशी है । अपरात्मा की सिद्ध भासवज्ञने बुध्याद लिगों के द्वारा की है अर्थात् बुद्ध-सुख-दुःख-इच्छा द्वष प्रयत्न किसी न किसी द्रव्य के आश्रित हैं, क्यों क गुण द्रव्याश्रित ही होते हैं । अत इन बुध्यादि लिंगों के द्वारा तदाश्रय भूत जीव की सिद्धि होती है। सूत्रकार ने भी 'इच्छा द्वष-प्रयत्न सुखदुःख-शनानि आत्मनो लिंगानि 1 इस सूत्र के द्वारा इसी तथ्य की अभिव्यक्ति की है। अनुमान प्रकार निम्नलिखित है-'बुद्ध्यादयः क्वचित समवेताः कार्यत्वाद् गुणत्वादा रूपादिवत् । उपर्युक्त अनुमान सामान्यतः आश्रयमात्राश्रितत्व को सिद्ध कर रहा है, अतः रूपादि गुणों के आत्मसमवेत न होने से दृष्टान्त में साध्यविकलता दोष नहीं है।
चक्षुरादि इन्द्रि यों को बुध्यादि का आश्रय नहीं माना जा सकता । अन्यथा चक्षु द्वारा किसी वस्तु को देखने के बाद चक्षु के नष्ट हो जाने पर उमसे दृष्ट वस्तु का स्मरण नहीं होना चाहिए, क्योंकि उस वस्तु का ज्ञान करने वाली चक्षु रन्द्रिय के न रहने पर पुरुष के द्वारा उसका स्मरण अनुपपन्न है। इसलिये विश्वनाथ पञ्चानन ने कहा है-'तथास्वं चेदिन्द्रियाणामुपघाते कथं स्मृतिः ?'
शरीर को भी बुद्धयादि का आश्य नहीं माना जा सकता । क्योंकि शरीर बाल्य, कौमार्य, जगदि भेद से भिन है, अतः बाल्यावस्था में नभत ठस्त का यावस्था में बारुयशरीर के न रहने से स्मरण नहीं होगा. क्योंकि जो अनुभविता होता है, वही ग्मर्ता होता है. भिन्न नहीं । अन्यथा देवदत्त द्वाग अनुभूत वस्तु का यज्ञदत्त द्वारा स्मरण की प्रमक्ति होगी। इस प्रकार बुद्ध आश्रय शरीर. इन्द्रियादि के न होने पर परिशेषात आत्मा ही उनके ओश्रयरूप से शेष रहता है। अतः पृक्ति ७ नमान द्वारा सामान्यतः आश्रयमात्र की सिद्धि काय विशेष के कारण तथा पारिशेष्य से आममिति में विश्रान्त हो जाती है और उपर्युक्त अनुमान में सिद्धसाध्यता दोष की आपत्ति नहीं है।
बौद्ध क्षणिक विज्ञान को आत्मा मानते हैं। उनके मत का भी इसी से निरास हो जाता है। क्षणिक विज्ञान को आत्मा मानने पर प्रतिक्षण विज्ञान के बदलते रहने से पूर्वविज्ञान से अनुभूत विषय का उत्तरबुद्धि से स्मरण नहीं होगा क्योंकि अन्य से अनुभूत का अन्य द्वारा स्मरण नहीं होता । पूर्वबुद्धि को उत्तर बुद्धि के प्रति कारण मानने पर भी पूत्रबुद्ध और उत्तरबुद्ध में भेद (अन्यत्व) बना ही रहता है
और इस प्रकार अन्यानुभूत का अन्य के द्वारा स्मरण नहीं होता इस न्याय से पूर्वबुद्ध से अनुभूत वस्तु की उत्तर बुद्धि से स्मरणानुपपत्तिरूप दोष बना ही रहता है । यदि बुद्धिभेद होने पर भी कार्यकारणभाव के कारण पूर्वबुद्ध्यनुभूत का उत्तरबुद्धि स्मरण करती है, तो आचार्य के द्वारा अनुभूत विषय का शिष्य . को 1. न्यायसूत्र, १11.
2. न्यायभूषण, पृ.१८७ 3. भाषापरिच्छेद, कारिका १८
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