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प्रमेयनिरूपण
२१५ उपयुक्त अनुमान से 'यथा वस्त्रादिकं प्रागभूत्वा पश्चादभक्त बुद्धिमत्तन्तुवायपूर्वकं तद्वत क्षिय कुदिकमपि प्रलर काले ऽभत्ता पश्चाप्रादुरत बुद्धिमापूर्वकम्' इस व्या प्त के बल से क्षित्यं कुरादि के कर्तृत्वरूप से परमात्ममिद्धि हो जाती है। उपर्युक्त व्याप्ति के बल से यद्यपि अनुमान से कर्तृ सामान्य की हो सिद्धि होती है, न कि परमात्मारूप क विशेष की. तथापि अस्मदादि प्राणिरूप जीवों के अल्पज्ञ तथा अल्पशक्तिमान् होने से न तो हमें क्षित्यंकुरादि के उपादान कारणों का पूर्णतया ज्ञान है और न हममें क्षित्यादि पदार्थों की रचना करने की सामर्थ्य है। अतः परमात्मातिरिक्त जीवों में नित्यादि के कर्तृत्व की असिद्वि हो जाने से परिशेषात सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् परमात्मा ही उसका कर्ता है. अतः परमात्मा की सिद्धि हो जाती है। जगदुरचनारूप कार्यविशेष से भी कतृवशेषरूप परमात्मा की सिद्धि होती है. जैसे-चित्रादिरूप कार्यविशेष के द्वारा चित्रकाररूप कतृ-शेष की सिद्धि होती है, क्यों कि जोवों में जगद्रचनारूप कार्य करने की शक्ति नहीं है। ‘एको हि रुद्रो न द्वितीयाय तस्थुर्य इमाल्लोकान् ईशते ईशनीभिः ।"
'न तस्य कार्य करणं च विद्यते । न तत्समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते ॥ पगऽस्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते । स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च ॥" 'विश्वतश्चक्षुमत विश्वनोमखो विश्वतोवाहुमत विश्वतस्यात । संबाहुभ्यां धमति सपनावाभूमा जनयन् देव एक ॥ 'एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि! सूर्याचन्द्रमसौ विधृतौ तिष्ठन एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि!
द्यावापृथिव्यो विधृते तिष्ठन...।" 'प्रशामितारं सर्वेषामणीयांसमणोरपि ।
रुक्मानं स्वप्नधीगम्यं विद्यात्तं पुरुषं परम् ॥ 'एष सर्वाणि भूतानि पंचभिर्व्याप्य मूतिभिः ।
जन्मवृक्षयनित्यं संग्राभयति चक्रवत् ॥8 इत्यादि श्रुतिस्मृतिरूप आगमों से भी ईश्वर की सिद्धि होती है। 1. श्वेताश्वतरोपनिषद, ३१२ २. वही, ६१८ 3. बही, ३३३ 4. वारण्यकोपनिषद् , ३११९ 5. मनुस्मृति, १२:१२. 6.पही, १२४
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