Book Title: Bhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Author(s): Ganeshilal Suthar
Publisher: L D Indology Ahmedabad

Previous | Next

Page 228
________________ प्रमेयनिरूपण प्रमेयों का हेयादिचातुर्विध्याविभाग भासर्वज्ञ ने न्यायसूत्रोक्त द्वादश प्रमेयों को चार भागों में विभक्त किया है(१) हेय, (२। उसका निवर्तक, (३) आत्यन्तिक हान और (४) उसका उपाय ।। क्योंकि उपर्युक्त द्वादश प्रमेय हेयादि रूप से चार भागों में भाव्यभान होकर ही नि श्रेयस के जनक बनते हैं. अन्यथा नहीं । यदि ऐसी स्थिति है, तो सूत्रकार ने इस चातुविध्य का निर्देश क्यों नहीं किया ? इसका कारण यही है कि पातंजल' तथा बौद्ध दार्शनिक हेयादि चार विभागों को मानते हैं और उनको स्वरूप न्यायदर्शन से भिन्न मानते हैं। जैसे-पातंजल में रजोवृत्त्यात्मक दुःख को हेय, द्रष्टापुरुष तथा दृश्यं प्रधानादि के संयोग को हेय का कारण, अविद्या के द्रष्टा और दृश्य के संयोग का अभाव हान तथा संशय-विपर्ययरहित विवेकख्याति हान का उपाय-माना है । इसो प्रकार बौद्वों ने दुःख, समुदय. निरोध, मार्ग-इन चतुर्विध आर्यसत्यज्ञान को मोक्ष का कारण मान कर संज्ञावेदनादि पंचस्कन्धों को दुःखरूप, शरीरेन्द्रियस्थोनाद में आत्मीयाभिनिवेश से उत्पन्न आग्रहरूप तृष्णा को हेय का प्रवान निमित्त समुदय, तृष्णारहित पुरुष को अविद्या-काम-कर्मादि द्वारा उपनीत रजतराज्यादि में अप्रवृत्ति को दुःखहानरूप निरोध और नैरात्म्यज्ञान का दु:खनिरोध का उपायरूप मार्ग माना है । प्रमेयों का हेयहानादि चतुर्विध विभाग करने पर पातंजलसंमत तथा बौद्धसमत हेय, हानादि के स्वरूप के ग्रहण की आशका बन जाती है। तत्परिहारार्थ उन्होंने उपयुक्त चतुविध विभाग रूप से प्रमेय का विभाग नहीं किया ।किन्तु न्यायदशन में आत्मादि प्रमे। हेयादि रूप से बम क होकर भायमान होने पर हो नि.श्रेयससाधक बनते हैं। अतः आत्मादि प्रमेयां का हेयादिरूप से चातुविध्य भासर्वज्ञ ने माना है। न्यायदर्शनानु पार द्वादश प्रमेयों में शरोर, घ्राणादि ६ इन्द्रियां, गन्धादि ६ विषय, उनके ज्ञान, सुख तथा दुःख हेय हैं । इनमें शरीर दुःख भोग का आयतन होने से दुःखरूप है, इन्द्रियां, विषय तथा उनका ज्ञान दुःखसाधन होने से तथा सुख दुःखसबन्ध से दुःखरूप हैं और स्वयं दुःख बाधनारूप होने से मुख्यतया दुःखरूप है । उपर्युक्त दुःख के उत्पादक असाधारण कारण अविद्या, तृष्णा, धर्म तथा अधर्म हेयहेतु हैं । इनमें आस्थ, मजा, मांस, शोणितादि से युक्त मूत्रराषा देभाजन रोगाधिष्ठान, आनत्य शरोपाद में नित्यत्वबुद्धरूप विपरीतज्ञान अविद्या है । पुनर्जन्म की इच्छा तृष्णा है। सुख का असाधारण कारण धर्म तथा दुःख का कारण अधर्म है। उपयुक्त दु ख का आत्यन्तिक उच्छेद हान है । आत्मविषयक तत्त्वज्ञान हानोपाय. है। इस प्रकार आत्मादि प्रमेयों का चातुर्विध्य है। 1. न्यायसार, पृ. ३१ 2. योगसूत्र, २।२४, २५, २६, २७ 1. न्यायभूषण, पृ. ४१२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274