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न्यायसार
प्रमेयों की मौक्षोपयोगिता आत्मा, शरीर, इन्द्रिय, अर्थ आदि सभी द्वादश प्रमेयों का ज्ञान मोक्षोपयोगी है । आत्मज्ञान होने पर परलोकाकांक्षा होती है. अन्यथा नहीं। आत्मा से देह की भिन्नता का ज्ञान होने पर देह में मंभाव्य आत्मबुद्धि की निवृत्ति हो जाती है, शरीररक्षा के लिये क्रियमाण हिंसादिकर्मों से भी पुरुष निवृत्त हो जाता है तथा शरोर के दुखायतनत्व का ज्ञान होने पर शरीरविषयक अज्ञान निवृत्त हो जाता हैं। दोषनिमित्तों के होने पर भी इन्द्रयों की अप्रवृत्ति होने पर दोषोत्पत्ति नहीं होती है, इस प्रकार इन्द्रिय-स्वरूप का यथार्थज्ञान कर उनके प्रत्याहार के लिये मुमुक्षु को
रना चाहिये । जाति, आयु तथा भोगरूप फल वाले, परिणाम में दुःखकारी इन्द्रियार्थी में उपादेयबुद्धि का त्याग कर वैराग्य की भावना करता है । विथ्याज्ञान संमार का हेतु है और तत्त्वज्ञान अपवर्ग का हेतु, यह ज्ञात कर मिथ्याज्ञान को तिरोभूत कर तत्त्वबुद्धि को अभ्यास से परिपुष्ट करता है । इस राति से इन प्रमेयों का ज्ञान मोक्षोपयोगी है । इन्द्रियों की विषय में प्रवृत्ति मन के द्वारा होती
और दोषवशात् इन्द्रियों को प्रवृत्ति होने पर अवश्य दोषोत्पत्ति होतो है, मनोजय से सभी इन्द्रियों का वशीकरण हो सकता है। अतः मुमुक्षु को प्रधानरूप से मनोजय में प्रवृत्त होना चाहिये । धर्माधर्मजनन द्वारा प्रवृत्तियों के दुःखमूलत्व का ज्ञान कर मुमुक्ष उनका पारहार करता है। 'न प्रवृत्तिः प्रतिसन्धानाय क्षीणक्लेशस्य'। इस सूत्र के अनुसार जिस पुरुष के राग, द्वेष, मोहरूप दोषों का नाश हो चुका है, उसकी पुनर्जन्म के लिये प्रवृत्ति नहीं होती । अतः दोष के स्वरूप को जानकर मुमुक्षु का दोषनाश के लिये प्रयत्नशील होना चाहिये । अनादिपरम्पराप्राप्त पुनर्जन्म की समाप्ति अपवर्ग के बिना नहीं हो सकती तथा उसकी निवृत्ति के लिये उसमें जननमरणादिरूप दुःखातिशय की भावना करनी चा हये । इस प्रकार प्रवृत्ति तथा दोष से जनित सुखदुःखरूप फल में मुमुक्षु को समता की भावना करना चाहिये । इस रूप से इन प्रमेयों का ज्ञान मोक्षोपयोगी है।
__ इस प्रकार मुमुक्षु विषानुविद्ध मध्वादि की तरह ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्त समस्त वेश को दुःखानु बद्ध होने से दुःखका जानकर उससे विरत हा जाता है । अपवर्ग हो सर्गोत्कृष्ट, अनन्त, आतेनिनल है ओर वही सदु.खोरमस्वरूप है, यह जानकर उसके लिये ही मुमुक्षु को प्रयत्न करना चाहिये । इस रूप से अपगस्वरूपज्ञान भी प्राप्तव्य होने से मोक्षोपयोगी है । उपर्यु क राति से समा आमादे नमे य माक्षोपयोगी हैं, अतः उनका स्वरूपज्ञान उपाय है । अतः इन द्वादश प्रमेयों का स्वरूप न्याय. दर्शन में बतालाया गया है।
1. न्यायसूत्र, १११६४
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