Book Title: Bhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Author(s): Ganeshilal Suthar
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 207
________________ १९२ न्यायसार अतः वर्णनित्यत्व को वेदप्रामाण्य का कारण नहीं माना जा सकता। वाकयनित्यत्व की अपेक्षा वाक्यों का अनित्यत्व ही 'वैदिकानि वाक्यानि अनित्यानि वाक्यत्वात् लौकिकवाक्यवत्' इस अनुमान से सिद्ध होता है। इसी प्रकार निम्तोक्त अनुमानों से भी शब्द में अनित्यत्व ही सिद्ध हाता है : १ 'अनित्यः शब्दः सामान्यवत्त्वे सत्यस्मदादिबायेन्द्रियग्राह्यत्वात् घटादिवत', २ 'अनित्यः शब्दः तीव्रत्वादिधर्मयुक्तत्वात्, सुखदुःखादिवत् ।' तथा शब्द को नित्य मानने पर यदि आकाशादि की तरह उसका अनुपलब्धिस्वभाव है, तो कभी भी शब्द की उपलब्धि नहीं होनी चाहिए और यदि उसका उपलब्धि स्वभाव है तो सर्वदा ही उपलब्धि होनी चाहिए । शब्द के नित्य होने पर भी व्यंजक द्वारा उसकी उपलब्धि होती है, अतः व्यंजककाल में ही उसकी उपलब्धि है, सर्वदा नहीं । जैसे, कक्ष में घट के विद्यमान होने पर भी प्रदीपादिरूप व्यंजक के बिना उसकी उपलब्धि नहीं होती, यह कथन भी समीचीन नहीं, क्योंकि शब्द का व्यंजक कोई उपलब्ध नहीं होता। वायुयोग को नित्य शब्द का व्यंजक मानने पर सभी शब्दों की एक काल में अभिव्यक्ति हो जानी चाहिये, क्योंकि वायुसंयोग को किसी शब्दविशेष का व्यंजक मानने में कोई कारण प्रतीत नहीं होता और जैसे चक्षुरिन्द्रिय अविशेषेण इन्दियसम्बद्ध सभी रूपों के ग्रहण में समथ हैं, उसी प्रकार श्रोत्रेन्द्रिय भी वायुसंयोग द्वारा अभिव्यक्त सभी शब्दों के ग्रहण में समर्थ हैं। न तो श्रोत्र के किसी प्रतिनियत शब्द के संस्कार से युक्त होने में प्रमाण है और न शब्दों के प्रतिनियत संस्कार से युक्त होने में कोई प्रमाण है। अतः वायपयोग भी शब्दव्यंजक होने से सभी शब्दों को अभिव्यक्ति कराने में समर्थ है तथा श्रोत्रेन्द्रिय भी चक्षुरादि इन्द्रियों की तरह अपने विषयभूत सभी शब्दों के ग्रहण में समर्थ है। इसलिये एक काल में सभी शब्दों को अभिव्यक्ति व श्रोत्रन्द्रिय से उनका ग्रहण होना चाहिए। किन्तु होता नहीं । अतः वायुसंयोग को नित्य शब्द का अभिव्यंजक नहीं मान सकने । यदि यह कहा जाय कि शब्दों को अनित्य मानने में भी यह दोष है, क्योंकि ककारोच्चारण के लिये प्रेरित वायु वर्णान्तरोत्पादक वायुओं के समान होने से एक काल में सर्ववर्णो की उत्पत्ति क्यों नहीं करता ? विद्यमान वर्ण का वायुसंयोग उत्पादक है और सभी वर्ग उत्पत्ति से पूर्व समानरूप से अवेद्यमान हैं । अतः वर्णो के उत्पत्तिपक्ष में इस दोष का जो परिहार होगा, वही अभिव्यक्ति पक्ष में भी माना जा सकता है । इसीलिये अभियुक्तों ने कहा है 'यश्चोभयोः समो दोषः परिहारस्तयोः समः ।' इसका समाधान करते हुए भासर्वज्ञ ने कहा है कि कारक और व्यंजक कारणों में वैधर्म्य है। मृत्पिण्डचक्रचीवरादि उत्पादक कारणों का समूह कुलाल के शरावनिर्माण के अभिप्राय से नियमित होकर शराब आदि प्रतिनियत कार्य का ही उत्पादन करता है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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