Book Title: Bhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Author(s): Ganeshilal Suthar
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 221
________________ २०६ न्यायसार धर्मकीर्तिने कहा है ' तस्मादनुष्ठेयगतं ज्ञानमत्र विचार्यताम् । कीटसंख्या दपरिज्ञानं तस्य नः क्वोपयुज्यते ॥1 जिन प्रमेयविशेषों का यथार्थस्वरूपज्ञान भाव्यमान होने पर मोक्ष के लिये उपयोगी है, उन आत्मादि १२ प्रमेयों को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है-चेतन और जड़ । आत्मा चेतन है और उससे इतर शरीरेन्द्रियाद जड़ हैं। न्यायभाष्यकार ने स्पष्ट शब्दों में कहा है- 'चेतनोऽयमात्मा । अर्थात् आत्मा चतन्य का आश्रय होने से चेतन है शेष शरीरादि चैतन्य के आश्रय न होने से जड़ हैं । इससे वेदान्तदर्शन के कतिपय दार्शनिकों ने नैयायिकों पर जो यह लाछन लगाया है कि वे जडात्मवादी हैं, उसका निराकरण हो जाता है, क्योंकि संसारदशा में आत्मा को चतन्याश्रय सभी मानत हैं। मोक्षदशा में भी भासर्वज्ञ आत्मसंवत्सहित दुःखात्यन्तानवृत्ति को मक्ष मानता हुआ आत्मा में ज्ञानरूप चैतन्य का अभाव नहीं मानता । इसमें आत्मविषयक तत्त्वज्ञान के साक्षात् मिथ्याज्ञान निवृत्ति द्वारा निःश्रेयसाङ्ग होने से आत्मा के स्वरूप तथा उसके पारमाणादि का विस्तारपूर्वक प्रतिपादन करना है, अतः उसके स्वरूप का उद्देशक्रमानुसार निरूपण न करके सूचीकटाहन्याय से प्रथम शरीरादि प्रमेयों का निरूपण किया जा रहा है। (२) शरीर शरीर का सौत्र लक्षग है- चेष्टेन्द्रियार्थाश्रयः शरीरम् ' क्रियाविशेष के लिये लोक में भी वष्टा शब्द प्रयु होता है । यथा- धावति, लंघते आदि । वह चेष्टा जिस अन्य अध्ययी में समवेत होती है, उसे शरीर कहते हैं । इन्द्रियाश्रयत्व का अर्थ इन्द्रियसभवायित्य नहीं है, क्यों क शरीर इन्द्रयों का समवायकारण नहीं है अतः वह समवाय सम्बन्ध से इन्द्रिों का आश्रय नहीं है । शरीरानुग्रह और शरीरापघात से इन्द्रियों का अनुग्रह तथा उपघात होने के कारण शरीर को इन्द्रियाश्रय कहा है। अयात्रयत्व का मा यही आभप्राय है कि शरार क होने पर ही तदर्वाच्छन्न आत्मप्र दश में सभा अर्थ सुख दुःखादि के जनक हात हैं। (३) इन्द्रिय 'इन्द्रियमिन्द्र लिङ्गनिन्द्रसृष्टमिन्द्रजुष्टमिन्द्रदत्त मति वा'। इस पाणिनिसत्र के अनुमार इन्द्रालगत्व इन्द्रियसामान्य का लक्षण है। अर्थात् इन्द्रिय आत्मा का अनुमापक हेतु है। इन्द्रियों के द्वारा आत्मा का अनुमान होना है । 'घ्राण रसनचक्षुस्त्वक् श्रोत्राणीन्द्रियाणि भूतेभ्यः '' यह न्यायसूत्र घ्राणादि इन्द्रियों का विशेष रूप से नामोल्लेख नथा व्यत्पन से उनका विशेष लक्षण प्रस्तुत करता है। सूत्रस्थ 1. प्रमाणवातिक, १३२ 3. पाणिनिस्त्र, ५।२।९३ 2. न्यायसूत्र, १1१1१२ 4. न्यायसूत्र, ११।१२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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