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पदार्थो के साधर्म्यवैधर्म्य प्रकरण में पृथिव्यादि पांच भूतों का साधर्म्य बतलाते हुए इन्द्रियप्रकृतित्व को भी उनका साधर्म्य बतलाया है ।"
(४) अर्थ
घ्राणादि पांचों इन्द्रियों द्वारा ग्राहूय गन्ध, रस. रूप, स्पर्श, शब्द ये पांच अर्थ कहलाते हैं जैसाकि सरकार ने कहा है- 'गन्धरसरूपापर्श-शब्दः पथिव्यादिगुणा स्तदर्था: 12 भाष्यकार ने 'पृथिव्यादीनां यथाविनियोग गणा इन्द्रियाणां यथाक्रममर्थाः विषया इति ' इस प्रकार षष्ठीपमाम का ग्रहण कर पृथिव्यादि के गणों को अथ माना है । वार्निककार ने भाष्यकारसम्मन इस षष्ठी मामपक्ष की उपेक्षा कर 'पृथिव्यादिगुणाः ' शब्द में द्वन्द्व समास माना है ।" भासर्वज्ञ ने भी 'पृथिव्यादयश्च गुणाश्च' इस उक्ति द्वारा वार्तिककारोक्त पक्ष का ही समर्थन किया है । अतः पृथिव्यादिगुणाः' के गन्धादि गुण ही अर्थ नहीं किन्तु उनके आश्रय पृथिव्यादि भी अर्थ हैं। गुणग्रहण से भासवंज्ञ के अनुसार यहां समस्त आश्रितों तथा विशेषण का संग्रह किया है । अतः भाव तथा अभाव इन दोनों प्रकार के इन्द्रियविष्यों का अर्थ पद से ग्रहण है। सूत्र में गुण शब्द से केवल भावरूप गुणों का ही ग्रहण नहीं हैं. अपितु अभाव का भी ग्रहण है, क्योंकि वह भी संयुक्तविशेषणता सम्बन्ध से इन्द्रिय का विषय होने के कारण अर्थ है । वह गुणों की तरह आश्रित तो नहीं है. परन्तु विशेषण तो है ही क्योंकि 'घटाभावभूतलम्' में घटाभाव की विशेषणतया प्रतीति अनुभवसिद्ध है । गुण शब्द से अब समस्त आश्रितों व विशेषणों का ग्रहण करने से घटाभाव, रूपाभाव आदि अभावरूप इन्द्रियविषयों का ग्रहण हो जाता है । देह भी इन्द्रियविषयत्वेन अर्थ है किन्तु चेष्टाश्रय तथा सुखद खादि-भोग का आयतन होने से 'शरीर' इस विशेष पद से व्यवहृत कर दिया गया है ।
2. न्यायसूत्र, १1१/१४
3. न्यायभाष्य, १११।१४
4. पृथिव्यादीनि गुणाश्चेति द्वन्द्वः समासः । न्यायवार्तिक, ११०१४
5. न्यायभूषण, पृ. ४३८
6. न्यायसूत्र, १1१1१५.
न्यायसार
(५) बुद्धि
न्यायदर्शन के अनुमार ज्ञान या उपलब्धि का नाम बुद्धि है. जैसाकि सूत्रकार For हैं - 'बुद्धिरुपलब्धिर्ज्ञानमित्यनर्थान्तरम् ।" यहां सूत्र में बुद्धि का पर्यायरूप लक्षण दिया गया है. अर्थात् बुद्धि के पर्यायवाची उपलब्धि व ज्ञान को ही बुद्धि का लक्षण बतलाया है । अन्य लक्षण को छोड़कर पर्यायलक्षण बतलाने का अभिप्राय यह है कि सांख्यदर्शन में प्रकृति का प्रथम परिणाम बुद्धि है, पुरुष का प्रतिबिम्बोदयरूप 1. पृथिव्यादीनां पंचानामपि भूतत्वेन्द्रिय प्रकृतित्वं बाह्यकेन्दियग्राह्यविशेषगुणवत्त्वानि ।
- प्रशस्तपादभाष्य, पृ. ११
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