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प्रमेयनिरूपण घ्राणादि शब्द 'जिघ्रत्य नेनेति घ्राणम', 'ग्सयन्य नेनेति सनम', 'चाटेनेनेति चक्षुः', 'स्पृश्यने नेति पर्शनम', 'शृणोत्य ने नेति ओम इस प्रकार व्युत्पत्ति से घ्राणादि इन्द्रियों के विशेष लक्षण का प्रतिपादन कर रहे हैं । यहां भासज्ञ का कथन है कि उपयुक्त रीति से विशेषलक्षणार्थक पाँच सत्र और विशेष देश के लिये एक सूत्र, इस प्रकार मिलाकर उपर्युक्त सत्र में ६ सूत्र हो जाते हैं ।'
सूत्रन्थ 'भूतेभ्यः' पद इन्द्रियों के सांख्याभिमत आहंकारिका' के प्रनिषेध के लिये है। यद्यपि. अहङ्कार भी भूनों की कृति पचतामा ाओं का कारण होने से कारण में कार्योपचार द्वारा भनशनवान्य है और त्रिगणत्व के कारण बहवचन में भी प्रयुक्त हो सकता है। अतः 'भने गः' से आहंकारिकव की निवृत्ति संभव नहीं, तथापि यहां भूतों से पृथिव्यानि भून ही अभिप्रेत हैं न कि प्रथिव्यानिकारणकारणत्वेन अहंकार । इसीलिये सन्कार ने 'पृथिव्यापम्तेजोवायुगका मिति भृतानि इस सूत्र द्वारा स्पष्ट कर दिया है कि पृथिवी. जल. तेज वाय तथा आका-ये पांच भून ही भूत शन से अभिप्रेत हैं न कि सख्यमंमत अहंकार । पांच भूतों में चार इन्द्रियों के समगयिकारण हैं। आकाश में वस्तुतः श्रोत्रेन्दिर कारणव नह है. क्योंक कर्ण शकल्यवछिन्न आकाठा ही श्रोत्रेन्द्रिय कहलाता है। अत एव भासर्वज्ञ ने स्पष्ट किया है कि आकाठा के विशिष्ट प्रदेश को इन्द्रियम्वभाव (इन्द्रियस्वरूप' ज्ञापित करने के लिये आकाश में इन्द्रियप्रकतिव का उपचार किया जाता है मख्यवृत्ति से आकाश में इन्द्रियकारणत्व नहीं है । अथवा का शकुली से संयोग की अपेक्षा से आकाठा में भी कारणत्व है। इस प्रकार 'भूतेभ्य' इम पद में निमित्त पंचमी मानने में कोई आपत्ति नहीं । मागमतानमार सभी इन्द्रियों की अहंकार से उत्पत्ति मानने पर सभी इन्नियों का अहङ्काररूप एक कारण होने से समानप्रकृतित्व के कारण रूपरसादि-व्यवस्थितविषयता की उपपत्ति संभव नहीं होगी।
समानतन्त्र शेनिस में भी अगर को इन्द्रियों की प्रकृति न मानकर भूनों को ही प्रक्रति बतलाया है। इसीलिये प्रशस्तपाद ने 'पदार्थ-धर्मसंग्रह' में
1. न्यायभूषण, पृ. ४६७ 2. अभिमानोऽहंकारस्तस्माद् द्विविधः प्रवर्तते सर्गः ।
साविक एकादशकस्तन्मात्रपंच चैव । सात्विक एकादशकः प्रवर्तते वकृतादहंकारात् ।
भूतादेम्तन्मात्रस्तौजसादुभयम् ॥ -- सांस्यकारिका, २४, २५. 3. प्रकृतेम हाँस्तजोऽहंकारस्त तो गणश्च षोडशकः।
तस्मादपि षोडशकात पंचभ्यः पंच भूतानि || -सांख्यसारिका. २२ 4. न्यायसूत्र, १1११३ 5. न्यायभूषण, पृ. ४३८ 6. वही
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