Book Title: Bhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Author(s): Ganeshilal Suthar
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 213
________________ १९८ न्यायसार अर्थात् गो में गवयसाश्यज्ञान है वह उपमान है। उस समय गाय का प्रत्यक्षादि द्वारा ज्ञान न होने से उस ज्ञान को प्रत्यक्षादिप्रमाणजन्य नहीं कहा जा सकता। अन उपमान को पृथक् प्रमाण मानना उचित है। किन्तु भासर्वज्ञ का कथन है कि गृहस्थित गाय का तथा सादृश्य का पहिले प्रत्यक्ष हो चुको है। अतः वन में गवय को देखने पर उसमें गो में) गवय-सादृश्यज्ञान स्मृतिमात्र है, क्यों के पहिले घर में चक्षुरिन्दय द्वारा गोपिण्ड के प्रत्यक्ष के समय विषाणादिप्रत्यक्ष को तरह प्रत्यक्षयोग्य हाने से सादृश्य का भी प्रत्यक्ष हो चुका है। अतः उसकी स्मृति मानने में केसी प्रकार को आपत्ति नहीं है। गोपण्ड प्रत्यक्षकाल में सादृश्यमात्र का ही प्रत्यक्ष हआ है न कि गवयप्तादृश्य का । अन्यथा उसी समय गवयसादृश्य को प्रतीति हो जाती और वर्तमान में अनेन सहशो मदीया गौः' इस रूप से गो में गवयसादृश्यज्ञान हो रहा है, अतः इसे स्मृति नहीं माना जा सकता- यह शंका भी निराधार है, क्योंकि गोपिण्डदर्शनकाल में निर्विकल्पक प्रत्यक्ष द्वारा सादृश्यमात्र का ज्ञान होने पर भी यदि गाय गवय के सदृश न होती, तो गवय भो गाय के सदृश नहीं होता, किन्तु यह गवय गोपिण्ड के समान है, अतः यह मेरी गाय भो गवय के समान अवश्य है, इस आपत्ति से गवय-दर्शन-काल में गोपिण्ड में गवयसादृश्य का स्मरण हो जाता है। निर्विकल्पक अनमव से अर्थात गो में सादृश्यमात्र के निर्विकल्पक प्रत्यक्ष से 'गव यसादृश्य वाली यह गाय है, ऐसी सविकल्पक स्मृति अनुपपन्न है, क्यों के अनुभवानुकारिणी हो स्मृति होती है, यह आशंका भी समुचित नहीं । जैसे अभाव, सामान्य का पूर्व निर्विकल्पक प्रत्यक्ष होने पर भी बाद में प्रतियोगिज्ञानादि सहकोरिकारणों के सामर्थ्य से अभागदि को सविकल्पक स्मृति होती है उसी प्रकार गौ में सादृश्यमात्र के निर्विकल्पक प्रत्यक्ष से बाद में गवय को देखने पर 'यह गौ गवय सादृश्य वाली है, यह सविकल्पक स्मृति गवयदर्शनसामर्थ्य से हो जाती है । जैसी गाय है वैसा गवय है, यह ज्ञान 'यथा गोस्तथा गवयः' इस वाक्य से हो जाने पर भी 'गवय शब्द गवय-पिण्ड को वाचक है, यह ज्ञान उपर्युक्त वाक्य से नहीं होता और उपमान का फल गवय शब्द तथा गवयपिण्ड में संज्ञासंज्ञिसम्बन्ध का ज्ञान है । अतः तदर्थ उपमान को पृथक् प्रमाण मानना चाहिये. यह न्याय. भाष्यकार, वातिककोरादि की मान्यता है। किन्तु भासर्वज्ञ का कथन है कि यह संज्ञासंज्ञिसम्बन्धज्ञान भो आप्तवाक्यरूप शब्दप्रमाण से ही उपपन्न हो जाता है। इसीलिये तुम्हें कसे मालूम हुआ कि यह गवयपिण्ड गवयशब्दवाच्य है, ऐसा पूछने पर वह व्यक्ति उत्तर देता है कि 'यथा गौस्तथा गवयः' इस वनेचर के वाक्य से 1. न्यायसार, पृ. ३० 2 न्यायभूषण, पृ. ४१८-४१९ 3. समारूयासबन्धप्रतिपत्तिरुपमानार्थः ।- न्यायभाष्य, 1111६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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