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२.२
न्यायसार
इम विभागसूत्र में स्पष्ट रूप से उम्को शब्द प्रमाण से पृथक उल्लेख कर रहे हैं। प्रत्यक्षा'द प्रमाणों को रह प्रसिद्धसार ति र साधनम् मनम' इस सत्र द्वारा उपमान का लक्षण भी उन्होंने बताया है तथा 'आयन्त प्रायैकदेशसाधादुपमानासिद्धिः'। इस सूत्र द्वारा उपमानासिद्धिबोधक पूर्वपक्ष का उपन्यास कर 'प्रसिद्ध. माधोदुपमा म्द्धयथोक्त दोषानुपपत्तिः” इस सूत्र के द्वारा उपमान मिद्धि का निरूपण द्वारा और 'उपमानानुमानं प्रत्यक्षेणा प्रत्यक्षसिद्धःइस सूत्र से उकी अनुमानान्न तता को आशंका कर तथेत्यपसंहागदुपमा नसिद्ध विशेषः 4 सूत्र के द्वारा उमके अनुमान में अन्तर्भाव का निषेधरूप परीक्षा द्वारा वे उपमान की पृथक प्रमाणता सिद्ध करते हैं । अतः सूत्रकार उद्देश लक्षण, परीक्षा नीनों के धारा जब उपमान की पृथक् प्रमाणता सिद्ध कर रहे हैं, तब उपमान का पृथक् प्रामाण्य सूत्रकार को अभिमत नहों, यह कथन साहस मात्र ही है।
उपमानविषयक सूत्रों की अन्यथा योजना भी समीचीन नहीं है । भामर्वज्ञ ने कहा है कि दृष्टान्त के प्रमाण तथा हेत्वाभामों के निग्रहस्थान होने पर भी प्रयोजनवशात उनके पृथक् अभिधान की तरह उपमान का पृथक् अभिधान प्रमाण विभागसूत्र में किया गया है, यह कथन समुचित :हीं, क्यों क दृष्टान्त प्रथम तो कोई प्रमाण नहीं क्योंकि प्रमाण प्रमेय का माधक है । पर्वतादि में नि का साधक अविनाभूत हेतु है. न कि दृष्टान्त । परार्थानुमान में दूमरे व्यक्ति को 'पर्वत में अग्नि है' इस बात को बतलाने के लिये पञ्चावयववाक्यरूप ममदाय की आवश्यकता होती है, उन्हों अवयव-गक्यों में अन्यतम हाटान्त हैं। उम्की कल्पना केवल पगर्थानुमान के लिए है, वह स्वतन्त्र प्रमाण नहीं है। इसी प्रकार हेत्वाभास सामान्य निग्रहम्थान न होकर साध्यमाधक हेतु के ही दोष हैं, जो कि हेतु की तरह प्रतीत होते हैं, किन्तु उनका प्रयोग करने पर भी आदी या प्रतिवादी निगृहीत हो जाता है, अतः • उनको निग्रहस्थान भी मान लिया गया है।
उपमान का पृथक कथन शब्दप्रामाण्य के समर्थन के लिये है-यह क्थन भी संगत नहीं, क्योंकि व्याकरण-कादि द्वारा प्रसिद्ध पदार्थ के साथ पद का सम्बन्धग्रह हो जाने से उपमान के बिना भी शब्द प्रामाण्य का समर्थन संभव है। संकेत ग्राहक व्याकरणादि तो प्रसिद्धार्थक पदार्थ वा पद के साथ रंकेत बोधन करने के लिए ही हैं । उपमान के सूत्रकारकृत लक्षण सत्र का, अलक्षित प्रमाण के अन्तर्भाव
1. न्यायसूत्र, ५।२।२५ 2. वही, २१:१५ 3. , २।११४६ 4. , १४८ 5.शक्तिग्रह व्याकरणीपमानकोशाप्तवाक्या व्यवहारतश्च । वाक्यस्य शेषाद्धिवृत्तवदन्ति सांनिध्यतः सिद्धपदस्य वृद्धाः ।।
-न्यायसिद्धान्तमुक्तावली, शब्दखण्ड, पृ. २९६
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