Book Title: Bhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Author(s): Ganeshilal Suthar
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 212
________________ आगमप्रमाणनिरूपणं १९७ प्रत्क्षादि प्रमाणों से अप्रतिपादित पुरुषाभिप्रायविशेष की बोधिका होने से चेष्टा पृथक् प्रमाण है ऐसा पौराणिक मानते हैं । किन्तु चेष्टा नाट्यशास्त्रादि द्वारा ज्ञात संकेत के बल से ही सतत्पुरुषाभिप्राय विशेष का बोधन करतो है । अतः संकेतग्रह द्वारा अर्थबोधक होने से उसका आगम प्रमाण में अन्तर्भाव है । संकेतबल से पुरुषाभिप्रायविशेष का बोधन करने पर भी वह शब्दरूप नहीं है, अतः इसे आगम नहीं माना जाना चाहिए, यह आपत्ति निर्मूल है, क्योंकि ऐसा मानने पर लिप्यक्षरों के भी शब्दरूप न होने से अर्थ प्रतिपत्ति की अनुपपत्ति होगी । अतः शब्दरूप न होने पर चेष्टा संकेतबल से अर्थबोधन करने के कारण शब्द - प्रमाणरूप ही है । ' इस प्रकार अर्थापत्ति आदि प्रमाणों में अनुमान शब्दादि प्रमाणों में अन्तर्भाव हो जाने से अर्थापत्ति आदि का पृथक् प्रमाणत्व नहीं है । इसा अभिप्राय से सूत्र - कार ने कहा है ' शब्द ऐतिह्यानर्थान्तरभावादनुमानेऽर्थापत्तिसम्भवाभावानर्थान्तरभावाच्चाप्रतिषेधः ' ।, " उपमान के पृथक् प्रामाण्य का निराकरण 4 · यथा भासर्वज्ञ नैयायिक होते हुए भी परम्परागत न्यायसिद्धान्त के विरुद्ध सांख्य, 8 योग आयुर्वेदादि दर्शनों की तरह प्रत्यक्ष, अनुमान व शब्द ( आगम ) इन तीन प्रमाणों को ही स्वीकार करता है तथा प्राचीन न्यायचार्यो द्वारा स्वीकृत उपमान प्रमाण का शब्द में अन्तर्भात्र मानता है । उनका आशय यह है कि गौस्तथा गवयः' अर्थात् जैसे गाय होती है, वैसा ही गवय होता है इत्याकारक ज्ञान ही उपमान है और यह वाक्यरूप है । अतः इसका 'अग्निमानय ' इत्यादि वाक्यों की तरह शब्द प्रमाण में अन्तर्भाव है । यदि ' यथा गौस्तथा गत्रयः इस वाकय के अन्य वाक्वों से भिन्न होने के कारण उपमान को पृथक् प्रमाण माना जायेगा, तो विधि, अर्थवाद आदि वाक्यों के भी सामान्य वाक्यों से भिन्न होने के कारण उनमें भी पृथक् प्रामाण्यापत्ति होगी । " मीमांसकों का कथन है कि ' यथा गौस्तथा गत्रयः ' यह ज्ञान तो शब्द प्रमाणजन्य है, किन्तु वन में गवय को देखने पर 'मेरी गाय इस गवय के समान है ' 1. न्यायसार, पृ ३४ 2. न्यायसूत्र, २/२/२ 3. त्रिविचं प्रमाणमिष्टम्... | - सांख्यकारिका, ४ 4. प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि । न्यायसूत्र, १९७ 5. एत्रमेतानि त्रीण्येव प्रमाणानि । - न्यायसार, पृ. ३४ 6 तत्र गौरिव पत्र इत्युक्मानं शब्देऽत्तर्भूतम् । 7. न्यायभूषण, पृ. ४१७ Jain Education International वही, पृ. ३० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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