Book Title: Bhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Author(s): Ganeshilal Suthar
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 214
________________ आमगप्रमाणनिरूपण १९९ मालूम हुआ, न कि उपमान से । यह प्रश्नोत्तर संज्ञासंज्ञिसम्बन्धज्ञान को आप्तः वाक्यरूप शब्द से जन्य ही बतला रहा है ।' तथा 'प्रत्यक्षेण घटं पश्यामि. 'धूमेनाग्निं जानामि, 'आगमेन स्वर्गमवगच्छामि' की तरह 'उपमानेन संज्ञासंज्ञि. सम्बन्धं जानामि' का प्रयोग कोई भी लौकिक तथा तेर्थिक नहीं कहता, अतः उपमान पृथक् प्रमाण नहीं है। यथा गौस्तथा गवयः' इस वनेचरवाकय से संज्ञासंज्ञसम्बन्ध-ज्ञान अनुपपन्न है. क्योंकि वनेचरवाक्योच्चारण के समय गवर्यापण्ड का प्रत्यक्ष नहीं है और अप्रत्यक्ष अर्थ में संज्ञासज्ञिसम्बन्धज्ञान कैसे हो सकता है, यह शंका भी निर्मूल है, क्योंकि अदृष्ट शकादिशब्दसम्बन्धज्ञान तथा कभी कभी अदृष्ट पुत्रादि में नामकरण रोक में अनुभवसिद्ध है । अदृष्ट शकादि में जैसे शक्रादि-संज्ञाग्रहण में नेत्रसहस्रादि निमित्त उपलब्ध होते हैं उसी प्रकार अदृष्ट गवयपिण्ड में गवयसंज्ञाज्ञान का निमित्त गवादिसादृश्य भी उपलब्ध है। 'गवयपिण्उ गवयशब्दवाच्य है, 'इस सामान्य संज्ञासंज्ञिसम्बन्ध-ज्ञान के वनेचर. वाक्यरूप शब्द से उपपन्न होने पर भी यह प्रत्यक्ष दृश्यमान अर्थात् पुरतः स्थित गवयपिण्ड गवयशब्दवाच्य है, इत्याकारक विशेष संज्ञा ज्ञसम्बन्धज्ञान के लिये उपमान को पथक प्रमाण मानने की आवश्यकता है, यह कथन भी यक्तियक्त नहीं, क्यों क ऐसा मानने पर 'गौरयम्' इस वाक्य से भो इस पुरोदृश्यमान विशेष आकार वाले व्यक्ति की गोसंज्ञा है, इस अर्थ को प्रतिपत्ति न होने से एतदर्थ पृथक् प्रमाणाभ्युपगम की प्रसक्ति होगी । तथा एक गोपिण्ड में 'गौरयम्' इत्याकारक विशेष संकेतज्ञान हो जाने पर भी व्यक्त्यन्तर में संकेतज्ञान न होने से तदर्थ पृथक् प्रमाण मानना होगा। यदि यह कहा जाय कि व्यक्त्यन्तर में 'गौरयम्' इत्याकारक शब्द का प्रयोग न करने पर भी एकत्र प्रयुक्त 'गौरयम्' इस वाक्य का प्रतिपादक तथा प्रतिपत्ता दोनों यही अभिप्राय समझते हैं कि सभी गोव्यक्तियों की गोशब्द संज्ञा है, अतः तदर्थ पृथक् शब्दाभिधान की आवश्यकता नहीं, तो प्रकृत में भी 'गोमहशो गरयः' इस वनेचरवाक्य का उच्चारण करने वाला वने चर तथा उससे अर्थज्ञान करने वाला नागारक यही समझता है कि गोसहशपिण्ड की गवयशब्द संज्ञा है, क्योंकि यह बाक्य उसी अर्थ को बतलाता है । अतः उपमान को किसी भी प्रकार से पृथक प्रमाण मानना उचित नहीं है। सूत्र विरोधपरिहार यदि उपमान पृथक् प्रमाण नहीं है, तो सूत्रकार ने 'प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमाणानि' इस प्रमाविभागसूत्र में उसका पृथक् प्रमाणत्वेन उल्लेख क्यों किया ? 1. न्यायसार, ३०-३१ 3. न्यायसार, पृ. ३१ 2. न्यायभूषण, पृ. १२० 4. न्यायसार, ३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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