Book Title: Bhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Author(s): Ganeshilal Suthar
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 195
________________ १८० न्यायसार निग्रहस्थान होता है, जैसाकि सत्रकार ने कहा है-'अविशेषोक्ते हेतो प्रतिषिद्धे विशेषमिच्छतो हेत्वन्तरम्' । जैसे-किसी ने वेदों को नित्य सिद्ध करने के लिये अम्मर्यमाणक कत्व हेतु का उपादान किया, किन्तु यह हेतु जीर्णकूगदि में व्यभिचरित है. क्योंकि उनके निर्माण करने वाले का ज्ञान नहीं । अतः इस हेतु के प्रतिवादी द्वारा निषेध कर देने पर सम्प्रदायाविच्छेदे सति' यह विशेषण जोड़कर वादी द्वारा पुनः उस हेतु का उपादान हेत्वन्तरनामक निग्रहस्थान है। (६) अर्थान्तर प्रकृत अर्थ से असम्बद्ध अर्थ का कथन अर्थान्तर निग्रहस्थान है, जैसाकि सूत्रकार ने कहा है-'प्रकृतादादपतिसम्बद्धार्थमर्थान्तरम्' । जैसे---किसी ने शब्द को नित्य सिद्ध करने के लिये 'नित्यः शब्दः अस्पर्शत्वात्' इस प्रकार अस्पर्शत्व हेतु का उपादान किया । यहां पर कोई यह कहे कि हेतु शब्द 'हि' धातु से 'तुम्' प्रत्यय करने पर बनता है और यह कृदन्त पद है । पद नाम, आख्यात, उपसर्ग, निपात भेद से चार प्रकार के हैं। नाम सस्वप्रधान होता है, इत्यादि का कथन करता है, तो वह प्रकृत विषय से असम्बद्ध अर्थ का कथन करने के कारण अर्थान्तरूप निग्रहस्थान से ग्रस्त है। धर्मकीर्ति ने भी इस निग्रहस्थान को स्वीकार किया है । (७) निरर्थक वर्णक्रमनिर्देश अर्थात् सिद्धमातृका-पाठ के समान कथन निरर्थक निग्रहस्थान कहलाता है, जैसाकि सत्रकार ने कहा है .- वर्ण कर्मानदेशवन्निरर्थकम् '1 अर्थात् जहां प्राश्निक और प्रतिवादी को वादो द्वारा कथित वाक्यों के पदार्थों का भी ज्ञान नहीं होता है, उसे निरर्थक कहते हैं । जैसे, किसी वादी ने शब्द में नित्यत्व सिद्ध करने के लिये नित्यः शब्दः कचटतपानां जबगडशत्वात्, झभघढधषवत्' इस अनुमानवाक्य का यदि प्रयोग किया, तो प्राश्निक (मध्यस्थ) और प्रतिवादी का हेत्वादिवाक्यों द्वारा किसी अर्थ का परिज्ञान न होने से यह निरर्थकनामक निग्रहस्थान है। सत्र में 'वर्णक्रमनिर्देशवत्' पद में तुल्यार्थ में वति प्रत्यय है न कि 'तदस्यास्ति' इस अर्थ में मतुप् प्रत्यय । अतः क च ट त प आदि वर्णो का भी किसी प्रकरण में अर्थ होने से इसे निरर्थक कैसे कहा जा सकता है, धर्मकीति की इस आशंका का परिहार हो जाता है, क्योंकि किसी प्रकरण में उनका अर्थ होने पर भी यहां जो हेतु रूप से क, च, ट, त, आदि वर्गों का प्रयोग है, वह सार्थक नहीं है, अपितु सर्वथा निरर्थक है। 1. न्यायसूत्र, ५।२।६ 2. वही, ५।२७ ३. न्यायसूत्र, ५।२८ Jain Education International www.jainelibrary.org | For Private & Personal Use Only

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