Book Title: Bhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Author(s): Ganeshilal Suthar
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 198
________________ कथानिरूपण तथा छल... १८३ (१४) अननुभाषण परिषत् तथा प्रतिवादी के द्वारा विज्ञाताक वाक्य का तीन बार कहने पर भी प्रतिवादी द्वारा उसका अनुभाषण (प्रत्युच्चारण) न करना अननुभाषण नामक निग्रह स्थान होता है । यह प्रतिवादी का ही निग्रहस्थान है अर्थात् इसमें प्रतिवादी का ही निप्रह होता है । क्योंकि जब वह वादो के कथन का प्रत्युच्चारण नहीं कर सकता, तो किस आधार पर वह परपक्ष का प्रतिषेध कर सकता है ? धर्मकीर्ति का यह कथन है कि कोई प्रतिवादी ऐसा हो सकता है जो प्रत्युच्चारण में समर्थ न होता हुआ भी वादी का उत्तर देने में समर्थ हो और वादी के कथन का प्रत्युच्चारण न करते हुए भी उसके दिये हुए समीचीन उत्तर से उसकी अमूढता का परिज्ञान भी पारिषद्यों को हो ही जाता है। ऐसी स्थिति में अनुभाषण को निग्रहस्थान कैसे माना जा सकता है? इसका समाधान करते हुए भासर्वज्ञ ने कहा है कि वादी के कथन का प्रत्युच्चारण न कर सदुत्तर देने पर भी उसका उत्तर निविषय हो जायेगा । अतः अनुभाषण आवश्यक है । हां, वादी के सारे कथन का प्रत्युच्चारण आवश्यक नहीं, किन्तु आवश्यक कतिपय अंश का प्रत्युच्चारण तो आवश्यक है । अन्यथा उत्तर में निविषयता दोष का प्रसंजन होगा। (१५) अज्ञान वादी के जिस वाक्य के अर्थ को परिषत् समझ जाती है और तीन बार उच्चारण करने पर भी प्रतिवादी उसके अर्थ को नहीं समझता, वहां अज्ञान नामक निग्रहस्थान होता है, जैसाकि सत्रकार ने कहा है :-'अविज्ञातार्थ चाज्ञानम्' ।। इसका अन्तर्भाव अननुभाषण निग्रहस्थान में नहीं हो सकता, क्योंकि वहां प्रतिवादी वादी के वाक्याथ' का प्रत्युच्चारण करने में असमर्थ होता है, चाहे वह उसका समीचीन उत्तर देने में समर्थ हो और अज्ञान नामक निग्रहस्थान में प्रतिवादी वादी के वाक्या का प्रत्युच्चारण तो कर देता है, किन्तु उसके अर्थ को नहीं समझता । (१६) अप्रतिमा कथा को स्वीकार कर वादी या प्रतिवादी जहां उत्तर का स्फुरण न होने से मौनावलम्बन कर लेता है, वह अप्रतिमा नामक निग्रहस्थान होता है । यद्यपि मत्रकार ने 'उत्तरस्य अप्रतिपत्तिरप्रतिमा' इतना ही लक्षण किया है, तथापि सत्र में उत्तर पद पूर्बोपन्यास की अर्थात् वादी के उपन्यास को अप्रतिपत्ति का भी बोधक है । इसो अभिप्राय से भासर्वज्ञ ने अप्रतिमा का 'कथामभ्युपगम्यतूष्णी भोवोऽप्रतिमा 1. न्यायसूत्र, ५/२।१७ 2. वही, पाश 3. न्यायसार, पृ. २६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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