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न्यायसार
पांचों ही अत्रयवाक्य साध्यसिद्धि में कारण है । इसलिये सूत्रकार ने कहा है'हीनमन्यतमेनापि अत्रयवेन न्यूनम्' ।"
(१२) अधिक
इसका लक्षण सूत्रकार ने हेतूदाहरणाधिकमधिकम् 2 अर्थात् जिस वाक्य में दो हेतु और दो उदाहरण होते हैं, वह अधिक निग्रहस्थान कहलाता है । एक हेतु और एक उदाहरण ही साध्यसिद्धि के लिए पर्याप्त है, अतः अन्य हेतु व उदाहरण का उपादान निरर्थक है । परन्तु यह भी नियमकथा में ही निग्रहस्थान कहलाता है, प्रपंचकथा में तो नियमाभाव के कारण दोष नहीं होता । नियमकथा में भी सम्प्लव की स्वीकृति न होने पर यह दोष होता ही है ।
(१३) पुनरुक्त
बिना किसी प्रयोजन के शब्द का पुनः उच्चारण या एक ही अर्थ का पर्यायवाची शब्द से पुन कथन पुनरुक्त निपइस्थान कहलाता है, जैसाकि सूत्रकार ने कहा है - ' शब्दार्थयोः पुनर्वचनं पुनरुक्तमन्यत्रानुवादात्' । जैसे, 'नित्यः शब्द., नित्यः शब्दः । नित्यो ध्वनिः अविनाशी शब्द:' । प्रथम उदाहरण में एक शब्द का निष्प्रयोजन पुनः उच्चारण है तथा द्वितीय में एक ही अर्थ का पर्यायवाची शब्द से पुनः कथन है । प्रथम शब्दपुनरुक्त तथा दूसरा अर्थपुनरुक्त का उदाहरण है । जहां किसी प्रयोजनवश शब्द और अर्थ का पुनः कथन किया जाता है, वहां पुनरुक्त निप्रहस्थान नहीं होता । जैसे, कथित वस्तु के अनुवाद में । जैसे, 'नित्यः शब्द:' इसी प्रतिज्ञावाक्य का निगमन में 'तस्मात् शब्दो नित्यः इस प्रकार अनुवादरूप से पुनः कथन दोष नहीं है । निगमनवाक्य में 'तस्माद् नित्यः शब्दः' यह हेत्वर्थ का अनुवाद है । वोदसा तथा पौनः पुन्यादि अर्थो में भी द्विरुक्ति या शब्दमात्र का अनुवाद होता है । जैसे– 'गौः गौः कामदुधा, सर्पः सर्पः' आदि ।
यद्यपि अर्थपुनरुक्तरूप एक निग्रहस्थान से ही शब्दपुनरुक्त गतार्थ है, तथापि बालव्युत्पत्ति के लिये उसका पृथक् कथन कर दिया गया है ।
पुनरुक्तान्तर
इसी पुनरुक के अवान्तर भेदों के अवधारण की इच्छा से पुनरुक्त का दूसरा लक्षण भी सूत्रकार ने किया है- 'अर्थादापन्नस्य स्त्रशब्देन पुनर्वचनं पुनरुक्तम्' | " जैसे - 'पर्वतो बहूनिमान् धूमात्' इत्यादि स्थल में, 'यत्र यत्र धूमस्तत्र तत्र वहूनिः, यथा महानसे' इस साधम्र्योदाहरण से व्याप्ति की सिद्धि हो जाती है । अतः तत्पश्चात् 'यत्र यत्रः बहून्यभावः तत्र तत्र धूमाभावः, यथा जलहृदे' इस वैधम्र्योदाहरण का अभिधान पुनरुक्त निग्रहस्थान है ।
1. न्यायसूत्र ५/२/१२ 2. बद्दी, ५२११३
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3. वही, ५/२/१४
4. न्यायसूत्र, ५/२/१५
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