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न्यायसार (२३) नित्यसम सूत्रकार ने नित्यसम का 'नित्यमनित्यभावाद नित्ये नित्यत्वोपपत्तेनित्यसमः। यह लक्षण किया है अर्थात् शब्द में अनित्यत्व धर्म के सदा विद्यमान होने से अनित्यत्व धर्म वाले शब्द धर्मी की नित्य सत्ता होगी, क्योंकि धर्मी के बिना धर्म की स्थिति सम्भव नहीं। और यदि शब्द में अनित्यत्व धर्म की सत्ता सर्वदा नहीं मानी जाय, तो अनित्यता के अभाव से उसमें स्वतः नित्यत्व सिद्ध हो जाता है। इस प्रकार शब्द में अनित्यत्व का प्रतिषेध अर्थात् नित्यत्वरूप आनष्ट का आपादन नित्यसम है।
सूत्रकार ने इसका परिहार 'प्रतिषेध्ये नित्यम नित्यभावादनित्ये नित्यत्वोपपत्तेः प्रतिषेधाभावः' इस सत्र के द्वारा किया है। अर्थात् प्रतिवादी ने शब्द में अनित्यत्वरूप धर्म की सदा स्थिति मानकर शब्द का अनित्यत्व स्वीकार कर लिया, अब उसका प्रतिषेध नहीं बन सकता, क्यों के अभ्युपगत का प्रतषेध अनुचित हे। यदि सर्वदा वह शब्द में अनित्यत्व स्वीकार नहीं करता, तो फिर 'नित्यमनित्यभावात्' को हेतु बतलाना असंगत है, क्योक असाधक हेतु नहीं होता। यदि वह यह कहे कि मैं शब्द में अनित्यत्व का निषेध नहीं करता. अपित नित्यत्व भी बतलाता हं. तो यह कहना सर्वथा असंगत है, क्योंकि एक ही शब्दरूप धर्मी में दो विरोधी धर्मों में नित्यत्व व अनित्यत्व की सत्ता नहीं हो सकती ।
दूसरी बात यह है कि शब्दप्रयंस ही शब्द की अनित्यता है । शब्दप्रध्वंस: काल में शब्द की सत्ता न होने से सर्वदा शब्द की सत्ता कैसे कहीं जा सकती है ?
(२४) कार्यसम प्रयत्नसाध्य कार्यों के अनेकविध होने से प्रयत्न द्वारा शब्द में उत्पत्तिरूप कार्य की तरह पूर्वविद्यमान शब्द में प्रयत्न द्वारा अभिव्यक्तिरूप कार्य के भी संभव होने से अभिव्यक्तिरूप कार्य की दृष्टि से शब्दनित्यतारूप अनिष्ट का आपादन कार्यसम जाति है। अर्थात जैसे 'शब्दोऽनित्यः प्रयत्नानन्तरीयकत्वात्. घटवत्' इस अनुमान के द्वारा वादी प्रयत्नजन्यत्व हेतु से शब्द में अनित्यत्व की सिद्धि करता है किन्तु प्रतिवादी कहता है कि प्रयत्न से वस्तु की केवर नवीन उत्पत्ति नहीं होती, अपितु पूर्व विद्यमान की अभिव्यक्ति भी होती है। जैसे, दीपक द्वारा कमरे में पूर्व विद्यमान घट की। स्थानप्रयत्नादिसंयोग या क्रियारूपप्रयत्न से शब्द में आभव्यक्तिरूप कार्य मानने पर शब्द में अनित्यत्व की मिद्धि के विपरीत नित्यत्व हो सिद्ध होता है, अतः प्रयत्नानन्तरोयकत्व हेतु शब्द में अनित्यत्व सिद्ध करने में असमर्थ है। यहां प्रतिवादी अभिव्यक्तिरूप कार्यविशेष से शब्द में
1. न्यायसूत्र, ५/११३५ 2.
५।१/३६
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