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न्यायसार के एकदेश आकाश व आत्मा में रहता है, पृथिव्यादि में नहीं। और द्रव्यत्वाभाव रूप साध्य वाले गुणकर्मादि में सर्वत्र रहता है । अतः सपक्षव्यापक है । ८. सपक्षविपक्षव्यापक पक्षकदेशवृत्ति : ___ यथा--'न द्रब्याण्याकाशकालदिगात्ममनांसि, क्षणिकविशेषगुणरहितत्वात् ।
यहां 'क्षणिकविशेषगुणरहितत्व' हेतु आकाश-काल-दिगात्ममनोरूप पक्ष के एक. देश काल, दिक्, मन में रहता है और आकाश तथा आत्मा में नहीं। अतः पक्षकदेशवृत्ति है । तथा द्रव्यत्वाभावरूप साध्य वाले सपक्ष गुणादि में सर्वत्र रहता है, इसी प्रकार द्वव्यत्वाभाव साध्य के अभाव वाले विपक्ष पृथिवी, जल, तेज, वायु सब में रहता है। अतः सपक्षविपक्ष व्यापक भी है। यहां क्षणिकत्व का अर्थ तृतीयक्षणवृत्तिध्वंसप्रतियोगित्व है, बौद्धों का निरन्वयविनाशात्मक क्षणिकत्व नहीं ।
जैननैयायिक प्रभाचन्द्र तथा हेमचन्द्र ने इन अनेकान्तिक-भेदों का उल्लेख कर स्वसम्मत अनेकान्तिक में अन्तर्भाव माना है। भासर्वज्ञोक्त इन अनेकान्तिकभेदों पर विचार करते हुए श्री वी. पी वैद्य का मन्तव्य है कि भासर्वज्ञ ने एक सुव्यवस्थित तथा स्वाभाविक पद्धति को अपनाया है। गणितीय विधि से इस हेत्वाभास के संभावित भेदों की परिगणना की है।
अनध्यवसित भासर्वज्ञ ने सूत्रकारसम्मत पांच हेत्वाभासों से अतिरिक्त प्रशस्तपादसम्मत अनध्यवसित* को षष्ठ हेत्वाभास माना है। भासर्वज्ञ को छोड़कर शेष सभी प्राचीन तथा नव्य नैयायिकों ने सूत्रकारोक्त पांच हेत्वाभासों को ही स्वीकार किया है। उनके अनुसार अनध्यवसित सूत्रकारोक्त अनेकान्तिक का हो एक भेद है, जो असाधारण संज्ञा से प्रसिद्ध है। अनध्यवसित का लक्षण न्यायसार में इस प्रकार है-'साध्यासाधकः पक्ष एव वर्तमानोऽनध्यत्रसितः' B अर्थात् जो हेतु साध्य का साधक न हो तथा केवल पक्ष में ही रहता हो, उसे अनध्यवसित हेत्वाभास कहते हैं । यदि 'पक्ष एव वर्तमानोऽनध्यवसितः'-यह लक्षण किया जाय, तो केवलव्यतिरेकी के भी पक्षमात्रवृत्तित्व के कारण वहां लक्षण की अतिप्रसक्ति हो जायेगी, अतः 'साध्यासाधकः' यह पद दिया गया है । सहचारज्ञान के विरोधी ज्ञान को व्यभिचारज्ञान कहा जाता 1 प्रमेयकमलमार्तड, पृ, ६३८. 2. प्रामाणमीमांसास्वोपज्ञवृत्ति, २/२०. 3. Bhasarvajna proceeds in a very systematic way and naturally by
considering the position of hetu as to Paxa, Sapaxa, or Vipaxa makes as many divisions of the fallacy as could be made mathematically.
- Nyāyasāra, Notes, P. 29, 4. प्रशस्तपादभाष्य, पृ. १९४. 5. न्यायसार, पृ. ७.
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