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न्यायसार
अभाव दोनों कोटियों में रहना जिस प्रकार अनेकान्तिकता है, उसी प्रकार दोनों कोटियों से हेतु की व्यावृत्ति भी अनेकान्तिक्ता है। । साधारण अनैकान्तिक में हेतु की भाव व अभाव कोटियों में वृत्तितारूप अनेकान्तिक्ता है तथा असाधारण व अनुपमहारी में दोनों का टयों से व्यावृत्तिरूप अनैकान्तिक्ता है। 'शब्दो नित्यः श्रावणत्वात्' इस असाधारण अौकान्तिक में श्रावणत्व हेतु केवल शब्द में रहने के कारण सपक्ष आत्मादि तथा विपक्ष घटादि इन दोनों कोटियों से व्यावृत्ति है तथा 'सर्वमनित्यं प्रमेयत्वात्' इस अनुपसंहारी में सर्वमात्र के पक्ष होने से प्रमेयत्व हेतु सभी सपक्ष व विपक्ष दृष्टान्तों से व्यावृत्त है, क्यों क सपक्ष व विपक्ष दृष्टान्त पक्ष भिन्न होते हैं । अतः वहां भी प्रमेयत्व भाव व अभाव दोगें कोटियों से व्यावृत्त है । इतनो हो अन्तर है कि असाधारण हेत्वाभास में सपक्ष-विपक्ष दोनों कोटियों के होने पर भी हेतु दोनों कोटियों में नहीं रहता और अनुपसंहारी में सपक्ष विपक्ष कोटि का अभाव होने से वहां हेतु नहीं रहता, क्योंकि सर्वमात्र के पक्ष होने से निश्चितसाध्यवान् सपक्ष तथा निश्चितसाध्याभाववान् विपक्ष का वहां अभाव है।
आचार्य भासर्वज्ञ को अनैकान्तिक के आठ भेद अभिप्रेत हैं। यहां उनका निरूपण किया जा रहा है१. पक्षत्र यव्यापक :
यथा-'अनित्यः शब्दः प्रमेयत्वात् ।' 'प्रमेयत्व' हेतु शब्दरूप पक्ष, घटादिरूप सपक्ष तथा आत्माकाशादिरूप विपक्ष-सभी में विद्यमान है । २, पक्षव्यापक सपक्ष-विपक्षौकदेशवृत्ति : ____जो हेतु पक्ष में मर्वत्र तथा सपक्ष व विपक्ष के एकदेश में रहता है, वह पक्ष-व्यापक सपक्षविपक्षकदेशवृत्ति अनेकान्तिक है । यथा- 'नित्यः शब्दः प्रत्यक्षत्वात् ।' इस अनुमान में प्रत्यक्षत्व हेतु शब्दरूप पक्ष में सर्वत्र रहता है अतः पक्षव्याप है तथा नित्यत्वरूप साध्य वाले सपक्ष के एकदेश आत्मा में रहता हैं, दिमाकाशादि में नहीं। इसी प्रकार नित्यत्वरूप साध्य के अभाव वाले विपक्ष के एकदेश घटादि में रहता है, न कि द्वयणुकादि पृथिवी में। अतः सपक्षविरक्षकदेशवृत्ति है।
यहां प्रत्यक्षत्व से जनसामान्य की इन्द्रिय द्वारा ग्रहणयोग्यतामात्र अभिप्रत है। अतः वीचीतरंगन्याय से कर्णशष्गुलीप्रदेश में उत्पन्न शब्द से भिन्न पूर्ववर्ती शब्दों के वस्तुतः प्रत्यक्ष न होने पर भी उनमें भी श्रोत्रेन्द्रियग्रहणयोग्यता होने से इस हेतु में पक्षकदेशवृत्तित्व का प्रसक्ति नहीं तथा सपक्ष क्विालालाकाशादि व विपक्ष द्वथणुकादि के भा योगिप्रत्यक्ष का विषय होने से इस हेतु में पक्षत्रयव्यापकत्व की भी प्रसक्ति नहीं है, क्योंकि वे योगिप्रत्यक्ष के विषय होने पर भी जनसाधारण की इन्दिय द्वारा ग्राह्य नहीं हैं। 1. अथापीदं स्यादने कान्तिकलक्षणेन न सर्वोऽनकान्तिको व्याप्यते यथा असाधारण इति । न, अनेनैव संग्रहातू । कमिति ? व्यावृत्तिद्वारेणाभिधीयभानोऽयमुभयान्तव्यावाचरनकान्तिकः ।
-~-न्यायवातिक, १/२१५
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