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अनुमान प्रमाण
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प्रासंगिक साध्यावधारण ही निगमन के द्वारा किया जाना चाहिए, साध्यविरुद्ध अभाव के प्रतिपादन से क्या प्रयोजन प्रतिपक्ष की यह आशंका भी उचित नहीं, क्योंकि प्रतिपक्षाभाव के प्रतिपादन बिना साध्य का अवधारण उपपन्न नहीं होता । इसी तथ्य का सूत्रकारसम्मति से बढीकरण करते हुए भासर्वज्ञ कहते हैं- 'विमृश्य पक्षप्रतिपक्षाभ्यामर्थावधारणं निर्णयः।'1 अर्थात् संशयपूर्वक साधन तथा दूषण द्वारा जो अर्थावधारण होता है, वह निर्णय कहलाता है। इस प्रकार सूत्रकारसम्मति से भी प्रतिपक्षाभावग्राहक प्रमाण का अभिधान उपयोगी सिद्ध होता है । अतः प्रति पक्षाभावग्राहक प्रमाण को अभिधान करने वाला निगमन निरर्थक नहीं है।
वस्तुतः विमर्शपूर्वक पक्षप्रतिपक्ष द्वारा अर्थावधारण ही निर्णय होता है, यह नियम अभिप्रेत नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्षस्थल में इन्द्रियार्थसन्निकर्ष द्वारा भी अर्थाव. धारण होता है । अतः निर्णय का सामान्य लक्षण तो अर्थावधारणमात्र है जैसा कि वार्तिककार ने कहा है-'अर्थपरिच्छेदः अवधारणं निर्णय इति'।' सूत्रकार ने निर्णय-लक्षण से पहिले तर्क का लक्षण किया है। अतः प्रस्तुत निर्णयलक्षण तर्कविषय के अनुसार है, जैसाकि वातिककारने कहा है-'एतस्मिश्च तर्कविषये विमृश्य पक्षप्रतिपक्षाभ्यामर्थावधारणं निर्णय इति सूत्रम् ।' तर्कविषय में निर्णय विमर्शपूर्वक पक्ष-प्रतिपक्ष द्वारा ही होता है । अतः तर्कानुगृहीत अनुमान प्रमाण से किये जाने वाले निर्णय में ही निर्णय का उक्त लक्षण घटित होता है, अन्यत्र नहीं ।
बौद्ध निगमन के अभिधान को असाधनांग अर्थात् साध्यसाधनभूत वाक्य का अंग नहीं मानते हैं, अपि तु प्रतिपक्षाभावज्ञानार्थ बाधक प्रमाण का प्रयोग करते हैं। किन्तु भासर्वज्ञ का तर्क है कि निगमन को असाधनांग मानने पर बौद्धों को
आदि की सिद्धि के लिए सत्व-कृतकत्वादि साधनों का ही प्रयोग करना चाहिये, 'असन्तो क्षणिकास्तस्यां क्रमाक्रमविरोधतः' इत्यादि रूप से विपक्षबाधक प्रमाण का अभ्युपगम नहीं करना चाहिए। तदर्थ बाधक प्रमाण स्वीकार करने पर बौद्धपक्ष में निग्रहस्थान की प्रसक्ति हो जाती है, क्योंकि सौगतसम्मत विपक्षबाधक प्रमाण निगमनार्थक ही है। विपक्षबाधक प्रमाण और निगमन दोनों का प्रयोजन 1. यद्यपि 'अवधारणं निर्णयः' इतना ही निर्णय का पूर्ण लक्षण है तथापि निःश्रेयसोपयोगी
आत्मादिनिर्णय के विचारक के अभिप्राय से लक्षण में 'पक्षप्रतिपक्षाम्याम्' कहा गया है। तत्प्रकारक निर्णय में साधन तथा दूषण दोनों का उपयोग बतलाने के लिये विमृश्य' कहा गया है । विप्रतिपत्तिनिमित्तक संशय के प्रवृत्त होने पर विचारक निरासमुखेन निर्णय करता है, साधनमात्र से नहीं। उभयपक्षसाधन की उपपत्ति होने पर विरुद्धाव्यभिचारित्व की प्रसक्ति हो जाती है । साधनाभाव की दशा मे साध्यसिद्धि न होने से केवल दूपण से भी निर्णय नहीं हो सकता । इसलिए दूषणसहित स्वपक्षसाधन से निर्णय होना
युक्तियुक्त है। 2. न्यायवार्तिक, १।११४१ 3. वही
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