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न्यायसार
दोनों व्याप्तयों से धूम का वह्नि से अव्यभिचरित साहचर्य सिद्ध होता है । परन्तु इसके विपरीत अग्निमान् तथा अग्निरहित दोनों प्रदेशों में विद्यमान वृक्षादि के सम्बन्ध को देखकर यदि कोई कहे-'पर्वतो वह्निमान, वृक्षादिसम्बन्धात्, तो यह सर्वथा अपंगत होगा, क्योंकि 'वत्र वृक्षादिसम्बन्धस्तत्र बहूनिः', 'यत्र वढून्यभावस्तत्र वृक्षादिसम्बन्धाभावः' -ये व्याप्तियां कदापि नहीं बन सकती । अतः समस्त अनित्यों में विद्यमान तथा समस्त नित्यों में अविद्यमान अविनाभूत कृतकत्वादि धर्म ही अनित्यत्व को सिद्ध करने में समर्थ हैं, न कि अभिनाभावरहित अमूर्तत्व आदि धर्म, क्योंकि अमूर्तत्व एकान्ततः नित्यों में न होक : अनित्य बुद्वि आदि में ही रहता है।
नित्य आकाश से साधर्म्य के कारण शब्द नित्य नहीं है तथा अनित्य पट से साधर्म्य क कारण अनित्य है-इस मान्यता में कोई विशेष कारण नहीं है, जातिवादी का यह कथन भी असंगत है, क्योंकि 'कृतकत्व' हेतु में स्वसाध्य अनित्यत्व से अविनाभावित्व है और 'अमूर्तत्व' हेतु में स्वसाध्य नित्यत्व से अविनाभावित्व नहीं है, अतः दोनों हेतुओं में स्पष्टतया ज्ञायमान विशेष को नकारना निरी मूर्खता है।
उत्कर्षसम. अपकर्षसम, वर्ण्यसम, अवर्यसम, विकल्पसम तथा साध्यसम इन ६ जातिभेदों का निरूपण करते हुए भासर्वज्ञ ने सूत्रकारोक्त लक्षणसत्र ही न्यायसार में उद्धृत कर दिया है-'साध्यदृष्टान्तयोर्धर्मविकल्पादुभयसाध्यत्वाच्चोत्कर्षापकर्षः बावर्ण्यविकल्पसाध्यसमाः'।' इस सूत्र को उद्धृत करते हुए कहा है कि यहां ६ जातिभेदों के लक्षण कहे गये हैं, अतः ६ वाक्य समझे जाने चाहिये ।' उन छह वाक्यों का उल्लेख उत्कर्षसमादि जातिभेदों का उदाहरण देते हुए किया गया है।
(३) उत्कर्षसम भासर्वज्ञ ने उत्कर्षसम का 'साध्ये दृष्टान्तादनिष्टधर्मप्रसंगः उत्कर्षसमः" यह लक्षण किया है अर्थात् साध्यधर्म वाले पक्ष में दृष्टान्त की समानता से अविद्यमान धर्म का आपादान उत्यर्षसम जाति कहलाती है। जैसे, वादी द्वारा 'शब्दोऽनित्यः कृतकत्वात् घटवत्' इस अनुमान से शब्द में अनित्यत्व का अनुमान करने पर प्रतिवादी उसका खण्डन करता हुआ कहता है कि यदि कृतकत्व के कारण घट की तरह शब्द अनित्य है, तब घट की तरह वह सावयव भी होना चाहिये । इस प्रकार दृष्टान्त घट की समानता से पक्ष शब्द में अविद्यमान सावयवत्व धर्म का आपादन उत्कर्षसम जाति है।
1. न्यायसूत्र, ५।१४ 2. न्यायभूषण, पृ. ३४. 3. न्यायसार, पृ. १८
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