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कथा निरूपण तथा छल...
कहते हैं । प्रयुक्त हेतु में समीकरणाभिप्राय से वादी का दोषोभावन साधर्म्य व वैधर्म्य दोनों से होता है । इसीलिये सूत्रकार ने 'साधर्म्यवैधम्र्म्याभ्यां प्रत्यवस्थानं जातिः ' यह जाति का लक्षण बतलाया है । अतः सूत्रलक्षण का हमारे जातिलक्षण से कोई विरोध नहीं है, क्योंकि उसमें जिन प्रकारों से वादी के पक्ष का प्रतिषेध किया जाता है, उनका दिग्दर्शन है ।
भाष्यकारोक्त 'प्रयुक्ते हि देतो यः प्रसंगो जायते स जातिः " इस जातिलक्षण से समानता के कारण भासर्वज्ञ ने उपर्युक्त जातिलक्षण न्यायभाष्य के अनुसार
किया है, यह स्पष्ट प्रतीत होता है । अपि च, जाति के भाष्यकारकृत सामान्यलक्षण का परिष्कार करते हुए भासर्वज्ञ ने उसमें 'समीकरणाभिप्रायेण' इतना अंश और जोड़ दिया है । जाति के भाष्यकार तथा भासर्वज्ञकृत सामान्यलक्षण में प्रयुक्त 'प्रसंग' शब्द में सूत्रकार के जातिलक्षण का अर्थ समाविष्ट हो जाता है ।
' प्रसंगो जातिः' इतना ही जाति का लक्षण करने पर प्रत्यक्षाभास आदि में जातिलक्षण की अतिव्याप्ति हो जायेगी, एतदर्थ लक्षण में ' हेतौ प्रयुक्ते' यह दिया गया है । असिद्धत्वादि दोष की उद्भावना द्वारा भी प्रतिवादी वादी के पक्ष का प्रतिषेध करता है और वह हेतुप्रयोग द्वारा ही होता है । इस प्रकार जातिलक्षण की असिद्धत्वादि दोषों में अतिव्याप्ति हो जाती है । एतदर्थ 'समीकरणाभिप्रायेण ' पद दिया गया है । इसके देने से अतिव्याप्ति का निवारण हो जाता है, क्योंकि असिद्धत्वादि का उद्भावन परपक्षखण्डन के लिये किया जाता है, स्त्रपक्ष की परपक्ष से समानता बतलाने के लिए नहीं ।
अपरार्क का कहना है कि केवल प्रसंग जाति नहीं, इस प्रयोजन से समीकरणाभिप्रायेण ' पद दिया गया है । अर्थात् प्रतिपक्ष से साम्य बतलाने के उद्देश्य से किया गया प्रतिषेधमात्र जाति नहीं होती, क्योंकि प्रतिपक्ष से साम्यप्रतिपादन के अभिप्राय से किया गया सम्यक् प्रसंग जाति नहीं कहलाता । अतः अपरार्क का कथन है कि यहां सम्यक् पद का अध्याहार कर लेना चाहिये और इस प्रकार असमीचीन प्रसंग अर्थात् प्रसंगाभास जाति है न कि सम्यकू प्रसंग । परन्तु
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1 न्यायसूत्र, १/२/२८
2. न्यायभाष्य, ११२/२८
3. स च प्रलंग: साधर्म्यवैधम्यभ्यिां प्रत्यवस्थानमुपलम्भः प्रतिषेध इति ।
4 साधर्म्यम्यभ्यिां प्रत्यवस्थानं जातिः । न्यायसूत्र १।२।१८
5. न्यायमुकावली, प्रथम भाग, पृ. २५३
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-- न्यायभाष्य, १/२/१८
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