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कथानिरूपण तथा छल...
१५१ अयुक्त उत्तर होने से किसी पक्ष की सिद्धि या खण्डन उनसे नहीं बन सकता, तथापि विजिगीषु पुरुष प्रतिपक्षी को व्यामुग्ध करने के लिये लोक में छलादि का प्रयोग करते हैं और छलादि के द्वारा मन्दधी पुरुषों को लोक में पक्षसिद्धि तथा प्रतिपक्षखण्डन की भ्रान्ति हो जाती है । इस लोकसिद्ध भ्रान्ति के अनुवाद रूप से ही सत्र में छलजात्यादि को पक्षसिद्ध तथा प्रतिपक्षखण्डन का साधन बतलाया गया है।
कतिपय विद्वानों का मत है कि प्रतिपक्ष के द्वारा व्याकुलचित्त वाले नैयायिकों को भी जब तक समीचीन साधनों का स्फुरण नहीं' होता है, तब तक छलादि का प्रयोग करना चाहिये। अन्यथा ऐसे अवसर पर छलादि का प्रयोग न करने वाले पुरुषों में अप्रतिभारूप निग्रहस्थान का उद्भावन कर असत्पक्षवादी विजयी वन जायेंगे ।' सत्पक्षवादियों को भी 'निगृह्णीयात यथाशक्ति देवताचार्यनिन्दकान्'इस कथन के अनुसार प्रमाणमूलक समीचीन साधन का स्फुरण न होने पर छलादिप्रयोग के द्वारा प्रतिपक्षी के निग्रह की अनुमति प्रदान की गई है। भाष्यकार का अभिमत तो यह है कि छलादि साक्षात् पक्षसिद्धि तथा प्रतिपक्षखण्डन में काम नहीं आते हैं। यह कार्य तो प्रमाण तथा तर्को के द्वारा ही किया जाता हैं, किन्तु प्रमाणों द्वारा साधनोपालम्भ करने पर यदि कोई उसके परिहार के लिये छलादि का प्रयोग करता है, तो उन छलादि के परिहार के लिये यदि प्रत्युत्तर में छलादि की उद्भावना नहीं की जायेगी, तो उपन्यस्त प्रमाणों से दूषितता की प्रतीति होने पर स्वपक्षसिद्धि तथा परपक्षखण्डन नहीं बनेगा, अतः प्रतिपक्षी द्वारा प्रयुक्त छलादि के परिहार के लिये छलादि का प्रयोग वादी के लिये आवश्यक है। प्रतिवादी द्वारा उद्भावित छलादि में वादी द्वारा उद्भावित छलादि से दुष्टत्व की प्रतीति हो जाने पर निर्दुष्ट प्रमाणों द्वारा स्वपक्षसिद्धि तथा परपक्ष-निराकरण हो जाता है। इस प्रकार वादी छलादि का उद्भावन प्रमाणों द्वारा स्वपक्षसिद्धि व परपक्षखण्डन का अंग बन जाता है।
वितण्डा वाद-जल्प-वितण्डा भेद से त्रिविध कथा के प्रसंग में वितण्डा कथा का निरूपण करते हुए भासर्वज्ञ ने वितण्डा के ‘स प्रतिपक्षस्थापनाहीनो वितण्डा' इस सत्र में 'सः' पद से जल्प का ही ग्रहण है, ऐसा न्यायभाष्यकार वात्स्यायन मानते हैं । परन्तु भासर्वज्ञ के अनुसार 'सः' पद से वाद और जल्प दोनों का ग्रहण है अर्थात् प्रतिपक्षस्थापनाहीन वाद तथा जल्प दोनों ही वितण्डा कहलाते हैं । अतः वितण्डाकथा विजिगीषुकथा तया वीतरागकथा भेद से दो प्रकार को है। सत्रकार ने भी 'प्रतिपक्षहीनमपि वा प्रयोजनार्थमथित्वे ' इस सत्र द्वारा वीतरागवितण्डा का निर्देश किया है। 1. न्यायभूषण, पृ. ३३३
2 न्यायभाष्य, १/:/२ 3. न्यायसूत्र, 1/२/३
4. न्यायमाध्य, १/२/३ . 5. न्यायभूषण, पृ. ३३४
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