Book Title: Bhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Author(s): Ganeshilal Suthar
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 168
________________ कथानिरूपण तथा छल... १५३ जिस प्रकार निर्णय के लक्षण में पक्ष शब्द से स्वपक्षसाधन अभिप्रेत है, उसी प्रकार वितण्डा के लक्षण में भी प्रतिपक्ष शब्द से प्रतिपक्षस्थापना अर्थ को प्रतीति हो जाने से स्थापना शब्द की क्या आवश्यकता है ? इस प्रश्न का समाधान करते हुए भासर्वज्ञने कहा है कि कतिपय विद्वानों का अभिमत है कि वैतण्डिक का कोई पक्ष नहीं होता, अपितु परपक्ष-दूषण मात्र ही वितण्डा कथा है, उस मत का निषेध करने के लिये सूत्र में स्थापना पद की आवश्यकता है ।' अर्थात वितण्डा में foss के स्वपक्ष का अभाव अनुपपन्न है, क्योंकि किसी के द्वारा प्रयोजन के विषय में पूछने पर यदि वैतण्डिक प्रयोजन को स्वीकार कर लेता है, तब वही उसका पक्ष वन जाता है और दूषणमात्र वितण्डा है अर्थात् वितण्डा में स्वपक्ष नहीं होता, ऐसा मानने वालों के मत से उसमें ( वैतण्डिक में ) वैतण्डिकत्व नहीं रहेगा । यदि प्रयोजन स्वीकार नहीं करता है, तो वह लौकिक परीक्षक दोनों से बहिर्भूत होकर उन्मत्त की तरह उपेक्षणीय बन जायगा, क्योंकि बिना प्रयोजन के कोई भी लौकिक या परीक्षक किसी विषय में प्रवृत्त नहीं होता । परपक्षप्रतिषेध का बोधन करना ही वैतण्डिक का प्रयोजन है, यह मानने पर भी जो परपक्षप्रतिषेध का बोधन करता है, जो उसे जानता है, जिस साधन के द्वारा ज्ञापन करता है तथा जो ज्ञापित किया जाता है, इन चारों को स्वीकार करने पर दूषण मात्र को वितण्डा मानने वालों के पक्ष में वैतण्डिक में वैतण्डिकत्व की हानि होती है । यदि उक्त चारों को स्वीकार नहीं करता है, तो उनके बिना अपरपक्ष का ज्ञापन न होने से अपरपक्ष-प्रतिषेधज्ञापनरूप प्रयोजन अनुपपन्न हो जाता है और वह पूर्ववत् उन्मत्त की तरह उपेक्षणीय बन जाता है । स्थापनाहीन वाक्यसमूह वितण्डा है, यह पक्ष भी उपर्युक्त पक्ष की तरह अनुपपन्न है, क्योंकि यदि वाक्यसमूह के वाच्यार्थ को वैतण्डिक स्वीकार करता है, तो वही उसका स्थापनीय पक्ष हो जाता है । यदि वाक्यसमूह के अर्थ को स्वीकार नहीं करता है, तो उसका वचन अनर्थक प्रलापमात्र हो जाता है ।" छल अङ्गिभूत कथाभेदों के निरूपण के पश्चात् वाद कथा में वर्जनीयत्वेन तथा जल्प व वितण्डाकथा में स्वपक्षसिद्ध्यर्थत्वेन व परपक्षप्रतिषेधार्थत्वेन उपादेय प्रसंगप्राप्त छलादि का निरूपण आवश्यक है । अतः उनका क्रमशः निरूपण किया जा रहा है । अन्यार्थकल्पना की उपपत्ति (संभव) से जहां वचन का निराकरण किया जाता है या उसे दूषित ठहराया जाता है, उसे छल कहते हैं, जैसाकि सूत्रकार ने कहा है - ' वचनविघातोऽर्थविकल्पोपपत्या छलम् । हेत्वाभासों की तरह छलसामान्य का 2. वही 1. न्यायसूषण, पृ. ३३४ 3. न्यायसूत्र, १/२/१० भाम्या - २० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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