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न्यायसार
frees a अनित्यत्व के निर्णायक किसी विशेष धर्म की अनुपलब्धि व अनित्यत्व का संशय बना रहता है, अतः उस संशय का प्रवर्तक विशेषधर्मानुपलम्भ अर्थात् अनित्यधर्मानुपब्धि तथा नित्यधर्मानुपलब्धि हेतु प्रकरणसम है ।' भासर्वज्ञ ने इसी आधार पर पक्षसव, सपक्षसत्त्व, विपक्षासत्व- इन तीन रूपों से युक्त जो हेतु पक्ष व प्रतिपक्ष की सिद्ध में सम है अर्थात् किसी एक पक्ष की सिद्धि नहीं करता, उसे प्रकरणसम कहा है ।" जैसे उपयुक्त अनुमान में विशेषधर्मानुपलम्भरूप हेतु प्रकरण - सम है, क्योंकि वहां दोनों हेतुओं में शब्द में नियतत्व व अनित्यत्व के निर्णायक किसी विशेष धर्म की उपलब्धि नहीं है । उपर्युक्त दोनों अनुमानों में प्रयुक्त दोनों हेतु शब्द में विशेषधर्मानुपलम्भ को ही व्यक्त कर रहे हैं । अतः वस्तुतः हेतु विशेष धर्मानुपलम्भरूप एक ही है, जो कि पक्ष व प्रतिपक्ष में अर्थात् शब्दानित्यत्व तथा शब्दनित्यल दोनों में समान है, दोनों को सिद्ध करता है ।
इन पांच प्रकार के हेत्वाभासों से भिन्न विरुद्धाव्यभिचारी भी हेत्वाभास है । मीमांसक तथा दिङ्नाग प्रभृति बौद्ध दार्शनिकों ने इसे माना है । एकधर्मी में रूप्य के कारण समान लक्षण वाले दो विरुद्ध हेतुओं का संनिपात विरुद्धाव्यभिचारी हेत्वाभास है । जैसे- नित्यमाकाशममूर्तद्रव्यत्वात् आत्मवत् अनित्यमाकाशमस्मदादिबाह्येन्द्रिमाह्यगुणाधारत्वात् ' * इन अनुमानों में एक ही आकाशरूप धर्मी में नित्यत्व तथा अनित्यत्व के साधक पक्षसत्त्र, सपक्षसत्त्व व विपश्नासत्त्वरूप रूप्य के कारण तुल्य लक्षण वाले 'अमूर्तद्रव्यत्व' तथा 'अस्मदादिबाह्येन्द्रियग्राह्यगुणाधारत्व' - इन दो विरुद्ध हेतुओं का संनिपात है । अतः यह विरुद्धाव्यभिचारी है ! प्रकरणसम में दो विरुद्ध हेतु नहीं होते, किन्तु एक ही होता है जो पक्ष प्रतिपक्ष को सिद्ध करता है, किन्तु विरुद्धाव्यभिचारी में दो विरुद्ध हेतुओं का संनिपात है और दोनों में अव्य भिचारिताज्ञान है । अत: वह प्रकरणस से भिन्न है । प्रशस्तपादाचार्य ने इसके स्वरूप का उल्लेख करते हुए बताया है कि इसमें दो विरुद्ध हेतुओं के संनिपात से यह साध्य में संशय का उत्पादक है, अतः यह सन्दिग्ध हेत्वाभास का एक भेद है, ऐसा कतिपय दार्शनिक मानते हैं, किन्तु वह सन्दिग्ध नहीं, अपितु असाधारण होने से अनध्यवसित हेत्वाभास है ।"
बौद्ध आचार्य दिङ्नाग को यह अनैकान्तिक के एक प्रभेद रूप में अभीष्ट है, क्योंकि उन्होंने अनेकान्तिक के भेदों को प्रदर्शित करते हुए 'विरुद्धाव्यभिचारी, यथा अनित्यः शब्दः कृतकत्वात् घटवत् । नित्यः शब्दः श्रावणत्वात् शब्दत्ववदिति ।" यह 1. न्यायमञ्जरी, उत्तर भाग, पृ. १५८-१९.
2. स्वपक्ष परपक्ष सिद्धावपि त्रिरूपो हेतुः प्रकरणसमः । 3. अनेकान्तिकः षट्प्रकार: ५, विरुद्वाव्यभिचारी चेति । -
4. न्यायसार, पृ. १२.
5. प्रशस्तपादभाष्य, पृ. १९२.
6. न्यायप्रवेश, भाग १, पृ. ४-५.
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-न्यायसारे, पृ. ७.
• न्यायप्रवेश, भाग १,१.३.
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