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न्यायसार
परमतानुसारो निदर्शन (नित्यः शब्दः संयोगव्यङ्ग्यत्वात् ) में 'संयोगव्यङ्ग्यत्व' हेतु का गौतमोक्त पांच हेत्वाभासों में साध्यसम (असिद्ध) नामक हेत्वाभास में अन्तर्भाव हो जाता है। इसीलिये वाचस्पतिमिश्र ने कहा है-.."स पुनरयमसिद्धविशेषणतया साध्यसम एवेति न पृथग्वाच्य इति स्थूलतया एष दोषो भाष्याकारेण नोद्भावितः" 11
आचार्य भासर्वज्ञ को भी कालातीत हेत्वाभास का जयन्तभट्टसम्मत स्वरूप ही अभीष्ट है। इसीलिये उन्हों ने न्यायसार में इसका 'प्रमाणबाधिते पक्षे वर्तमानो हेतुः कालात्ययापदिष्टः'' यह लक्षण दिया है। अर्थात् प्रत्यक्षादि प्रमाणों से बाधित साध्य वाले पक्ष में वर्तमान हेतु कालात्ययापदिष्ट होता है। यहां पक्ष से 'सन्दिग्धसाध्यवान् पक्षः' इस परिभाषा के अनुसार सन्दिग्ध साध्यवान् धर्मी का ग्रहण है। सन्दिग्धसाध्यवान् धर्मी का उपन्यासकाल ही हेतु का प्रयोगकाल होता है, क्योंकि सन्दिग्धलाध्यवान् पक्ष में सन्दिग्ध साध्य की सिद्धि ही हेतुप्रयोग का प्रयोजन है। उस पक्षवृत्ति साध्य का बाध यदि प्रत्यक्षादि प्रमाण से हो जाता है, तो पक्ष के सन्दिग्धसाध्यवान् न होने से उस काल में प्रयुक्त हेतु प्रयोगकाल का अत्यय हो जाने पर अपदिष्ट होने से कालात्ययापदिष्ट कहलाता है । अर्थात् साध्य का काल तब तक रहता है, जब तक कि पक्ष में साध्य की सिद्धि या बाध न हो। साय की सिद्धि हो जाने पर निर्दिष्ट हेतु को सिद्धसाधन और पक्ष में साध्य का बाध हो जाने पर प्रयुक्त हेतु को बाधित या कालत्ययापदिष्ट कहा जाता है।
श्री वी. पी. वैद्य का कथन है कि कालात्ययापदिष्ट बाधित्त अथवा बाध कैसे होता है, यह उनके समझ में नहीं आता । कालात्ययापदिष्ट के अन्तर्गत भासर्वज्ञ बाधित का उदाहरण देते हैं, यह और भी अधिक दुर्बोधता का कारण बन जाता है। श्री वैद्य के इस विचार से यही व्यक्त होता है कि उन्होंने जयन्त भट्ट तथा वाचस्पति मिश्र के प्रकृत हेत्वाभाससम्बन्धी व्याख्यान का अवलोकन नहीं किया है । अन्यथा ऐसी आशंका नहीं करते । क्योंकि तात्पर्यटीका में वाचस्पतिमिश्र ने इस हेत्वाभास की स्वमतपरक व्याख्या में 'स हि धमिणि बलवता प्रमाणे तद्विपरीतधर्मनिर्णयं कुर्वता संशयकालमतिपातितः......" इस वाक्य में बलवान् प्रमाण द्वारा बाध बतला कर इसकी बाधित संज्ञा को सूचना दी है। 'हेतुप्रयोगकालमतीत्य यो हेतुरपदिश्यते, स कालात्ययापदिष्टः,' 'हेतोः प्रयोगकालः प्रत्यक्षागमानुपहतपक्षपरिग्रहसमय एव तमतीत्य प्रयुज्यमानः प्रत्यक्षागमबाधिते विषये वर्तमानः कालात्ययापदिष्टो भवति' अर्थात् 1. न्यायतात्पर्यटीका, पृ. १/२/९. 2. न्यायसार, पृ. ७. 3. I fail to see how this is the same as बाधित: or बाधः of the later writers.
I am oven much more perplexed to see, that Bhasarvajña gives more instances of बाधित: under the heading of कालात्ययापदिष्टः.
-Nyayasara, Notes. p. 32. 4. न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका, १/२/९, 5. न्यायमन्जरी, उत्तरमाग, पृ. १६७.
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