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न्यायसार ६ आश्रयासिद्ध
(१) 'आश्रयेणासिद्धः', आश्रयासिद्धः (२) 'आश्रयोऽसिद्धोऽस्येति सः तथोक्तः अर्थात् जिस हेतु का आश्रय असिद्ध हो, उसे आश्रयासिद्ध कहते हैं। जैसे 'प्रधानमस्ति, विश्वपरिणामित्वात् ' अर्थात् प्रधान का अस्तित्त्र है, विश्वपरिणामित्व के कारण । सांख्यमनानुसार यह विश्व प्रधानात्मक है । सुख, दुःख, मोह स्वभाववाले सत्व, रज और तमस् की साम्यावस्था ही प्रधान अथवा प्रकृति कहलाती है। यहाँ विश्वं परिणामोऽस्य विश्वपरिणामि, तद्भावस्तत्त्वं इस व्युत्पत्ति के द्वारा विश्वपरिणामित्व' का समस्त विश्व प्रकृति का परिणाम है यह अर्थ है । विश्वपरिणामित्व' हेतु से सांख्य दार्शनिक प्रधान का अस्तित्व सिद्ध करना चाहते हैं। क्योंकि नैयायिकमतानुसार विश्व प्रधान का परिणाम नहीं है, प्रधान और विश्व का सम्बन्ध यथार्थ नहीं है, अतः यह हेतु प्रधान का अस्तित्व सिद्ध नहीं कर सकता । प्रधान के असिद्ध होने से तन्निष्ठ हेतु 'विश्वपरिणामित्व' आश्रयासिद्ध हो जाता है । भासर्वज्ञ ने सांख्यदर्शन से सम्बद्ध अत एव विशेष उदाहरण आश्रयासिद्ध का दिया है। किन्तु इस उदाहरण में विश्वपरिणामित्व' साधन को तरह प्रधानास्तित्वरूप साध्य भी अनिश्चित है, अतः एकान्ततः आश्रयासिद्ध का उदाहरण नहीं है । अत. उत्तरवर्ती नैयायिकों ने 'गगनारविन्दं सुरभि अरविन्दत्वात् + यह उदाहरण दिया है। ७. आश्रयैकदेशासिद्ध :
जिस हेतु के आश्रय का एक देश असिद्ध हो, उसे आश्रयैकदेशासिद्ध कहते हैं । 'नित्याः प्रधानपु षेश्वराः, अकृतकत्वात्' इस उदाहरण में पक्षीकृत प्रधानादि का एक देशभूत प्रधान नैयायिकमतानुसार असिद्ध है, अतः हेतु आश्रयैकदेशासिद्ध है। ८. व्यर्थविशेष्यासिद्ध : __ जिस हेतु का विशेष्य भाग व्यर्थ जर्थात् साध्यसाधन में उपयुक्त न हो, उसे व्यर्थविशेष्यासिद्ध कहते हैं। जैसे 'अनित्यः शब्दः, कृतकत्वे मति सामान्यत्वात् ।' यहाँ कृतकत्व हेतु से ही शब्द में अनित्यत्व की सिद्धि है। सामान्यवत्व' विशेष्य का साध्यसिद्धि में कोई उपयोग नहीं है, अतः वह व्यर्थ है। ९. व्यर्थविशेषणासिद्धि :
यदा 'अनित्यः शब्दः सामान्यवत्त्वे सति कृतकत्वात् यहाँ भी पूर्ववत् सामान्यवत्त्व विशेषण व्यर्थ है, क्योंकि कृतकत्व से ही शब्द की अनित्यता सिद्ध हो जाती है ।
1. न्यायतात्पर्यदीपिका, पृ. ११६ 2. न्यायमुचावली, प्रथम भाग, पृ. २१८ 3 न्यायतात्पर्य दीपिका, पृ. ११६ 4. तर्कभाषा, पृ. १२५
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