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न्यायसार
जयन्तभट्ट ने सौत्र लक्षण में परिष्कार करते हुए कहा है कि 'साध्यत्वात्' इस पद से रहित 'साध्याविशिष्टः' इतना ही असिद्ध का लक्षण उचित है । साध्यत्व तो एकमात्र अन्यतरासिद्ध में व्याप्त है, समस्त है, असिद्धभेदों में नहीं । असिद्धत्व ही समस्त असिद्धभेदों में अनुगत है, अतः असिद्धत्व ही लक्षणत्वेन प्राप्त होता है। अतः उन्होंने असिद्ध का लक्षण देते हुए कहा है कि जो हेतु पक्ष में अर्थात् साध्यविशिष्ट धर्मी में नहीं रहता, वह असिद्ध कहलाता है । जयन्त भट्ट का अनुसरण करते हुए भासर्वज्ञ ने भी असिद्ध का 'तत्रानिश्चितपक्षवृत्तिरसिद्धिः' यह लक्षण किया है। अर्थात् पक्ष में जिसकी सत्ता सन्दिग्ध हो या हेतु पक्ष में नहीं रहता इस प्रकार से निश्चित हो, वह हेतु असिद्ध हेत्वाभास कहलाता है। जयन्त भट्ट के अनुसार भासर्वज्ञ ने भी 'न्यायभूषण' में असिद्ध के सौत्र लक्षण को अध्यापक बतलाते हुए कहा है कि साध्यत्व अन्यतरासिद्ध में ही घटित होता है। अतः सम्प्रतिपयत्त्यविषयत्वरूप साध्याविशिष्टत्व ही असिद्ध का व्यापक लक्षण है जो कि सभी
भेदों में घटित होता है। 'साध्यत्व' केवल अन्यतरासिद्धि में ही घटित होता है, अन्यथासिद्ध आदि भेदों में नहीं । अतः 'साध्यत्व' को अन्यतरासिद्ध का लक्षण मानना चाहिए । अथवा इसका अर्थ असिद्धत्व करना चाहिए, जिससे वह सब असिद्धभेदों को व्याप्त कर सके । भासर्वज्ञ ने कहा है कि यद्यपि देशकालभेद तथा स्वरूपभेद से हेत्वाभासों के सूक्ष्म भेद अनन्त, हैं तथापि उन्होंने स्थूलदृष्ट्या व्युत्पत्ति के लिये कतिपय भेद प्रस्तुत किये हैं। उन्होंने असिद्ध के स्वरूपासिद्ध, व्याकरणासिद्ध, विशेष्यासिद्ध, विशेषणासिद्ध आदि १२ भेद माने हैं, जिनका संक्षेप में निरूपण प्रस्तुत किया जा रहा है : १. स्वरूपासिद्ध :
जिस हेतु का स्वरूप असिद्ध हो या जो हेतु स्वरूप से असिद्ध हो उसे स्वरूपासिद्ध कहते हैं । जैसे-'शब्दोऽनिस्यः चाक्षुषत्वात्' । यहां चाक्षुषत्व हेतु में स्वरूप पक्षसत्त्व का अभाव है, अतः यह स्वरूपासिद्ध है। तात्पर्य यह है कि प्रकृत में स्वरूशब्द से हेतुगत पक्षसत्त्व, सपक्षसत्त्व और विपक्षासत्त्व-इन तीन धर्मों का ग्रहण होता है। इन तीनों धर्मों की असिद्धि एकत्र विवक्षित होती. तो कथित चाक्षुषत्व हेतु में ही स्वरूपासिद्धि संभव नहीं होती, क्योंकि उसमें केवल पक्षसत्त्व का अभाव है, सपक्षसत्त्व या विपक्षासत्त्व का नहीं । अतः स्वरूपासिद्ध पद से हेतु का
1. पक्षधर्मत्वं यस्य नास्ति धर्मि णि यो न वर्तते हेतु: सोऽसिद्धः ।
-न्यायमंजरी, उत्तर भाग, पृ. १६२ 2. न्यायसार, पृ. ७ 3. सम्प्रतिपत्यविषयत्वं साध्याविशिष्टत्वं व्यापक लक्षणं साध्यत्वादित्यन्यतरासिद्धस्य लक्षण.
प्रमादपाठो वाऽसिद्धत्वादित्यर्थो वेति-न्यायभूषण, पृ ३.९ 4. स्वरूपेण असिद्धः, स्वरूपं वा असिद्ध यस्य सोऽयं स्वरूपासिद्धः ।--वही, पृ. ३११
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