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अनुमान प्रमाण
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नहीं मानते । उनके प्रति नैयायिक उपर्युक्त अनुमान प्रस्तुत करते हैं । उपर्युक्त अनुमान में प्रमेयत्वरूप केवलान्वयी हेतु सपक्षव्यापक है, क्योंकि वह समस्त वस्तुओं के प्रमेय होने से किसी के अर्थात् योगी आदि के प्रत्यक्षविषयीभूत समस्त सपक्षों में रहता है ।
२. सपक्षैकदेशवृत्ति :
'विवादास्पदीभूतान्यदृष्टादीनि कस्यचित् प्रत्यक्षाणि मीमांसकानामप्रत्यक्षत्वात् अस्मत्सुखादिवत्' ।' विवादास्पद अदृष्टादि का किसी को प्रत्यक्ष होता है, मीमांसकों को अप्रत्यक्ष होने से हमारे सुखादि की तरह | अर्थात् जैसे हमारे सुखादि का हमें ही प्रत्यक्ष होता है, सब को नहीं, क्योंकि सुखादि का आत्ममनःसंयोग के द्वारा प्रत्यक्ष होता है और हमारे सुखादि का हमारे मन से सम्बन्ध है न कि दूसरों के मन से । अतः उनको हमारे सुखादि का प्रत्यक्ष नहीं होता । उसी तरह विवादास्पद अष्टादि का किसी योगी आदि को प्रत्यक्ष होता है । इस अनुमान में 'मीमांसकानामप्रत्यक्षत्वम्' हेतु मोमांसकों को अदृष्टादि के प्रत्यक्ष न होने से वहाँ हेतु के रहने पर भी घटादि का मीमांसकों को भी प्रत्यक्ष होने से वहाँ हेतु की वृत्तिता न होने से सपक्षैकदेशवृत्ति केवलान्त्रयी है । 'कस्यचित् प्रत्यक्षत्व' साध्य के सर्वत्र विद्यमान होने से इस हेतु का विपक्ष विद्यमान नहीं है ।
haaraat के नास्तित्व की आशंका और उसका परिहार
बौद्धों की मान्यता है कि साध्य और साधन के अविनाभाव का नाम व्याप्ति है और हेतु साध्यव्याप्तिमान् होता है । अतः केवलान्वयी हेतु में भी साध्य के साथ उसका अविनाभाव आवश्यक है । अविनाभाव का स्वरूप व्युत्पत्ति द्वारा 'तेन विना न भवति' इत्याकारक है अर्थात् साध्याभाव में साधन का न होना है । साध्याभावरूप ही विपक्ष है और उसके न होने से साध्याभाव व साधनाभावरूप व्यतिरेक के न होने के कारण हेतु को केवलान्वयी कहना असंगत है | 2
भासर्वज्ञ उक्त पक्ष का खण्डन करते हुए कहते हैं कि व्यतिरेक के अभाव में अविनाभाव का अभाव मानना उचित नहीं । व्याप्यव्यापकभाव ही अविनाभाव का लक्षण है और साध्य तथा साधन का व्याप्यव्यापकभावरूप अविनाभाव साध्याभावरूप विपक्ष से रहित केवलान्वयी में भी है । अविनाभाव शब्द का 'तेन विना न भवति' इत्याकारक व्युत्पत्त्यर्थं मानने पर अविनाभाव में व्यतिरेकसापेक्षता आती है, परन्तु तत्र का विनिश्चय व्युत्पत्त्यर्थ से न होकर लक्षण से होता है । व्युत्पत्त्यर्थ को तत्त्वव्यवस्थापक मानने पर स्थित गौ में 'गच्छतीति गौः' इस व्युत्पन्त्यर्थ का समन्वय
1. न्यायसार, निर्णयसागर संस्करण, १९१०, पृ. ५
2. न्यायसूषण, पृ. ३०२
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