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न्यासार
न होने से गोव्यवहार नहीं होगा। अतः लक्षण का सद्भाव होने पर भी शब्द. व्युत्पत्ति के असंभव होने मात्र से अविनाभाव का प्रतिषेध उचित नहीं है।' स्वयं बौद्धों के पक्ष में भी ऐसा मानना उचित नहीं होगा । अन्यथा मनोविज्ञान, आत्मा संवेदन और योगिज्ञान-इन बौद्धसम्मत मानसादित्रय में प्रतिगतमक्षम् ' इस व्युत्पत्त्यर्थ के संभव न होने से वे प्रत्यक्ष नहीं कहे जा सकेंगे।
साध्याभाव होने पर साधन का अभाव ही व्यतिरेक है। साध्याभावरहित केवलान्बया में उस व्यतिरेक को प्रसिद्धि न होने से हेतु में संदिग्धान कान्तिकत्व को तो शंका भी निरर्थक है, क्योंकि केवलान्वयी हेतु में साध्याभावरूप विपक्ष के असम्भव होने से विपक्ष में हेतु को सत्ता है या नहीं इत्या कारक सन्दिग्धानकान्तिकत्व की शंका अनुपपन्न है । काल्पनिक नरविषाणादि को प्रतीत्यभाव के कारण सत्ता न होने से उनमें साध्याभावत्वरूप विपक्षत्व अनुपपन्न है। इसो लिये विपक्ष के लक्षण में 'साध्यव्यावृत्तधर्मा धर्मों विपक्षः' इस रूप में धर्मी पद का प्रयोग किया है। अपि
च, प्रमाणसिद्ध वस्तु ही विपक्ष होता है और उसी में हेतु की सत्ता व असत्ता का विचार किया जाता है और नरविषाणादि प्रमाणसिद्ध नहीं हैं, अतः उनको वपक्ष मानना तथा उनमें हेतु के सत्त्व या असत्त्व का विचार ही अनुपपन्न है।
प्रामायापलिद्र आकाश कुसुमादि को विपक्ष मानकर उनमें हेतु के अभाव से केवलान्वयो हेतु को भले ही पतिरेकी कहा जाय, परन्तु 'साध्यव्यावृत्तधर्मा धर्मी विपक्षः' इस लक्षग वाले विपक्ष का अनाव होने से प्रमेय हेतु केवलान्वयी ही माना जोता है।
केवलव्यतिरेकी हेतु का निरूपण
केवलव्यतिरेकी का लक्षण-पक्षव्यापको विद्यमानसपक्षो विपक्षाव्यावृत्तः केवल्लयतिरेकी' है। अर्थात् सपक्ष रहित, पक्षव्यापक तथा विपक्षव्यावृत्त हेतु केवलव्यतिरेकी कहलाता है। जैसे, ‘सर्व कार्य सर्ववित्कर्तृपूर्वकं, कादाचिकत्वात् । अर्थात् सनस्तकार्य सर्वविकर्तृपूर्वक हैं, कदाचित्क होने से । जो सर्ववित्कर्तपूर्वक नहीं होता, वह कादाचित्क भी नहीं होता, जैसे -आकाशादि । इसी प्रकार जीवित शरीर सात्मक है, प्रागादिमान् होने से । जो सात्मक नहीं होता, वह प्राणादिमान् भी नहीं होता, जैसे-लोष्टादि । प्रकारभेद से अर्थात् प्रसक्ति द्वारा भी प्रयोग किया जा सकता है । जैसे-यह जीवित शरीर निरात्मक नहीं है, अप्राणादिमत्व-प्रसक्ति के कारण, लोष्ट का तरह ।
1. न्यायभूषण, पृ. ३०३. 2. न्यायसार, पृ. ५.
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