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अनुमान प्रमाण
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से गृहीत है और 'पर्वतो वहूनिमान्' इत्याकारक साध्यधर्मविशिष्ट धर्मी के निर्देश की तरह 'अत्राग्नि' इत्याकारक धर्मिविशिष्ट साध्यधर्मनिर्देश भी प्रतिज्ञा है । क्योंकि 'अत्राग्निः' यह कहने पर अग्निमान् प्रदेश की प्रतीति नहीं होती, ऐसा नहीं माना जा सकता । 1
हेतु निरूपण
साधनत्व के बोधक लिङ्गवचन को हेतु कहते हैं ।' अर्थात् साधनत्व के प्रकाशक पञ्चम्यन्त या तृतीयान्त हेतुवचन को हेतु कहते हैं । जैसे 'अनित्यः शब्दः तीव्रादिधर्मोपेतत्वात् ' इस अनुमान में तीव्रादिधर्मोपेतत्व वचन । मुख्यतया तो लिङ्ग ही हेतु होता है, न कि हेतुवचन, क्योंकि लिङ्ग ही पक्षधर्मत्वादि रूपों के सद्भाव से साध्य का प्रतिपादक होता है । हेतु के तीन भेद हैं
(१) अन्वयव्यतिरेकी, (२) केवलान्वयी और (३) केवलव्यतिरेकी ।
अन्वयव्यतिरेकी हेतु
अन्वयव्यतिरेकी हेतु पंचरूपोपन्न होता है । वे पाँच रूप इस प्रकार हैं(१) पक्षधर्मत्व, (२) सपक्ष सत्त्व, (३) विपक्षव्यावृत्ति, (४) अबाधितविषयत्व और (५) असत्प्रतिपक्षत्व । यहाँ इन पांच रूपों का स्वरूप स्पष्ट किया जा रहा है१. पक्षधर्मत्व :
साध्यधर्मविशिष्ट धर्मी को पक्ष कहते हैं । उसमें हेतु का व्याप्यवृत्तित्व पक्षधर्मत्व कहलाता है ।
२. सपक्षसच्च :
साध्य (पक्ष) के समान धर्मा वाला धर्मों सपक्ष कहलाता है । उसके समस्त देश अथवा एकदेश में हेतु की सत्ता सपक्षसत्त्व कहलाता है ।
३. विपक्ष व्यावृत्ति :
साध्य से व्यावृत्त धर्म वाला धर्मी विपक्ष कहलाता है ! समस्त विपक्ष से अथवा उसके एक देश से हेतु की व्यावृत्ति विपक्षव्यावृत्ति कहलाती है ।
1. न्यायभूषण, पृ. २८४
2. न्यायसार, पृ. ५
3. वही
4. न्यायभूषण, पृ. २८७ - २८८
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