Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi

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Page 19
________________ वि० सं० ३१०-३३६ वर्ष । [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ४--दान का अनुमोदन करने वाली ग्वालिये की औरत तथा एक पड़ोसन भवान्तर में राजकन्यायें हो अपार सुख भोग कर स्वर्ग गई । ५--सुबाहु कुँवारादि दश राजकुँवरों ने पूर्व भव में दान देकर ऋद्धि प्राप्त की। ६--तीर्थङ्कर शान्तिनाथ ने पूर्व मेघस्थ राजा के भव में अपने शरीर का मांस काट काट कर देकर एक कबूतर को प्राणदान दिया। ७--भगवान् नेमिनाथजी तथा राजमति ने शंखराजा और जसोमती राणी के भव में मुनि को जलदान दिया तथा नेमिनाथ प्रभु ने विवाह के समय अनेक पशुओं को जीवनदान दिया। ८--भगवान् पार्श्वनाथ ने अग्नि में जलते हुये सर्प को अभयदान दिया। ९--इनके अनुकरण रूप में ऐसे सैकड़ों नहीं पर हजारों उदाहरण हैं कि जिन्होंने अभयदान एवं सुपात्र दान देकर अपना कल्याण साधन किया है। १०-- दान करने के लिये सुपात्र एवं सुक्षेत्र होना जरूरी बात है । इसके लिये शास्त्रकारों ने सात क्षेत्र बतलाये हैं जैसे: १ साधु २ साध्वी ३ श्रावक ४ श्राविका ५ जिनमन्दिर ६ जिनमूर्ति ७ ज्ञान साधु साध्वियों को आहार पानी वस्त्र पात्र मकान पाट पाटले और औषधी वगैरह का दान देना महान लाभ है। श्रावक श्राविकायें-प्रभावना, स्वधर्मीवात्सल्य तीर्थ यात्रार्थ संघ निकाल कर साधर्मी भाइयों को लाभ पहुँचाना तथा कोई अशक्त एवं निर्बल साधर्मी भाई हो उसको मदद पहुंचाना यह भी एक उत्तमक्षेत्र है। कारण सात क्षेत्र के पोषण करने वाले श्रावक हैं । यह क्षेत्र हरा भरा गुलचमन रहता है । तब ही धर्म की उन्नति होती है। जिनमन्दिर यह एक धर्म का स्थायी स्थम्भ है । इसके होने से हजारों जीव धर्म में स्थिर रह कर आत्मा कल्याण कर सकते हैं । मन्दिर के लिये आर्य भद्रबाहु ने कूप का उदाहरण दिया है और महानिशीथ सूत्र में मन्दिर बनाने वाले की गति बारहवां स्वर्ग की बतलाई है । श्रावक का आचार है कि शक्ति के होते हुये अपने जीवन में छोटा बड़ा एक मन्दिर तो अवश्य ही बनाना चाहिये ।। जिनप्रतिमा-जिनप्रतिमा की अन्जनसिलाका, प्रतिष्ठा और पूजा करने आदि में द्रव्य व्यय करना। जितना मावतीर्थङ्करों की सेवा भक्ति का लाभ है उत्तना ही उनकी स्थापना की सेवा भक्ति से लाभ है इतना ही क्यों पर मूर्ति द्वारा तीर्थङ्करों के सब कल्याण क की आराधना हो सकती है। ज्ञान-ज्ञान की वृद्धि करना ज्ञान पढ़ने वालों को मदद करना । ज्ञान के साधन पुस्तकों पर ज्ञान एवं आगम लिखा कर ज्ञान भंडार में रखना । इस पंचम आरा में जितनी मन्दिरों की जरूरत है उतनी ही ज्ञान की आवश्यकता है । अतः ज्ञानवृद्धि के निमित्त द्रव्य व्यय करना भी महान् लाभ का कारण है । इस प्रकार सात क्षेत्रों में द्रव्य दान किया जाय वह सुपात्र दान कहा जाता है । इनके अलावा काल दुकाल में मनुष्य और पशुओं को मदद पहुँचाना भी दान की गिनती में ही गिना जाता है। इत्यादि सूरिजी ने अनेक हेतु युक्ति दृष्टान्त और आगमों के प्रमाण से दान का महत्व बतलाते हुये ७५६ [ दान धर्म का भविष्य में फल Jain Education International For Private & Personal Use Only : www.jainelibrary.org

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