Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य यक्षदेवसरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ७१०-७३६
उज्जवलता, पुण्य का संचय, पाप का नाश, यश कीर्ति का पसारा विनय का विकाश, स्वर्ग का साधन और परम्परा से मोक्ष की प्राप्ती होती है । कहा है कि-- व्याजे स्यादिगुणं वित्त व्यवसायो चतुगंणम् । क्षेत्रे दशगुणं प्रोक्त, पात्रेऽनन्तगुणं भवेत् ॥
ब्याज में दुगुणा व्यापार में चारगुणा क्षेत्र में दश एवं सौगुणा परन्तु सुपात्र में दान देने से तो अन्नत गुणा पुण्य होता है गृहस्थवास में रहे हुये जीवों से अन्य कार्य मुश्किल से बनते हैं पर दान तो सहज ही में बन सकता है । अतः मोक्ष की अभिलाषा रखने वाले सज्जनों को सामग्री के सद्भाव दान जरूर देना चाहिये।
संसार में धन माल राज पाट कुटुम्ब परिवार सब नाशवान हैं परन्तु दान के द्वाग कीर्ति मिली है वह अमर रहती है जैसे कर्ण की कीर्ति अब भी लोग गारहे हैं।
हाथ कंकण से शोभा नहीं पाता है पर दान से सुशोभित होता है । दान से भोग मिलते हैं बैरी शान्त होते हैं सर्व जगत बश में होता है और क्रमशः स्वग और अपवर्ग मिलता है फिर क्या चाहते हो ?
जैनों के अलाबा जैनेतर शास्त्रों में भी दान के गुण गाये हैं नान्नदानात्परं दानं, किंचिदस्ति नरेश्वर ! । अन्नेन धार्यते कृत्स्नं चराचरमिंद जगत् ॥१॥ सर्वेषामेव भूतानामन्ने प्राणाः प्रतिष्ठिताः । तेनान्नदो विशां श्रेष्ठ ! प्राणदाता स्मृतो बुधैः ॥२॥ ददस्वान्नं ददस्वन्नं ददस्वान्नं नराधिप ! । कर्मभूमौ गतो भूयो यदि स्वर्गत्वमिच्छसि ॥३॥ दातव्यं प्रत्यहं पात्रे निमित्तषु विशेषतः । याचितेनापि दातव्यं श्रद्धापूतं तु शक्तितः ॥४॥ दुःखं ददाति योऽन्यस्य भूयो दुःखं च विन्दति । तस्मान्न कस्यचिदुःखं दातव्यं दुःख भीरुणा ।।५।। पात्रेवल्पमपि दानं कालं दानं युधिष्ठिर ! । मनसा सुविशुद्धेन प्रेत्यानन्तफलं स्मृतम ॥६॥ पात्रे दत्वा दानं प्रयाण्युक्त्वा च भारत ! । अहिंसाविरतः स्वर्ग गच्छेदिति मतिर्मम ॥७॥ साधूनां दर्शनं स्पर्शः कीर्तनं स्मरणं तथा । तीर्थानामिव पुण्यानां सर्वमेवेह पावनम् ॥८॥ साधूनां दर्शनं पुण्यं तीर्थभूता हि साधवः । कालतः फलते तीर्थ सद्यः साधुसमागमः ॥९॥ आरोहस्व रथे पार्थ ! गाण्डीवं च करे कुरु । निर्जितां मेदिनी मन्ये निर्ग्रन्थो यदि संमुखः ॥१०॥ श्रमणस्तुरगो राजा मयूरः कुंजरो वृषः । प्रस्थाने या प्रवेशे वा सर्वे सिद्धिकाए मताः ॥११॥ पद्मिनी राजहंसाश्च निर्ग्रन्थाश्च तपोधनाः । य देशमुपसर्पन्ति तत्र देशे शुभं वदेत् ॥१२।।
धर्म रूपी नगर में दान राजा है । जैसे स्वाति नक्षत्र में सीप में गिरा हुआ जल बहुमूल्य मौती बनता है इसी प्रकार सुपात्र को दान देना बहुत फल देता है । इत्यादि दान के अनेक गुण हैं और इस प्रकार सुपात्र को दान देकर अनेक भव्यों ने अपना कल्याण किया है।
१--भगवान् ऋषभदेव के जीव धना सारथबाह के भव में एक मुनि को घृत का दान दिया अतः वे तेरहवें भव में ऋषभदेव तीर्थकर हुये । ओर जो भव किया है वे बड़े ही सुख के लिये।
२--शालीभद्र सेठ ने ग्वालिये के भव में एक मुनि को खीर का दान दिया
३-अमरजम राजकुँवार ने पूर्व ग्वालिये के भव में एक मुनि को वस्त्र दान दिया जिससे दूसरे भव में अपार ऋद्धि का धणी गजकुँवार अमरजस हुआ। जैनेतर शास्त्रों में भी दान धर्म की महिमा ]
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