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दो मनोज्ञ, अमनोज्ञ, उच्छवास त्रस स्थावर बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक साधारण स्थिर, अस्थिर,गुभ-अशुभ, शुभग अशुभग, सुस्वर, दु:स्वुर, पादेय, यशकीर्ति प्रयशकीर्ति, तीर्थकर
गंध दो-सुगंध और दुर्गध (कुल ये ६३+३०६३) ___ आनुपूर्वी नाम कर्म-मरण के बाद, अगली गति में जाने के पहले अर्थात् मरण के पहले रहा हुआ शरीर के आहार आत्म प्रदेश को रखनेवाले कर्म-विहायोगतिनाम कर्म-इस कर्म के उदय से आकाश में चलने की उठने की शक्ति को उत्पन्न करता है।
तीर्थकर नाम कर्म-यह कर्म जीव को अरहन्त पदवी को प्राप्त करा देता है।
७-जिस कर्म के उदय से परम्परा से उच्च तथा नीच कुल में जन्म होता है उसको गोत्र कर्म कहते हैं । इस प्रकार नीच गोत्र और उच्च गोत्र नाम कर्म के दो भेद हैं।
E-जो कम दान लाभ आदि कार्यों में विघ्न करता है उसको अन्तराय कहते हैं। यह दानान्तराय, लाभान्तराय, वीर्यान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगमन्त राय, इस भेद से पांच प्रकार का है।
इन आठों कों में ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय मोहनीय और अन्तराय इन कर्म को धातिया कर्म कहते हैं। यह कर्म प्रात्मा के प्रदेशकों को घात करते हैं। शेष कर्म को अघातिया कर्म कहते हैं।
इन आठ कर्मों से बधे हए जीवों को संसारा जीव पाहते हैं । ऐसे संसारी जीव दो प्रकार के हैं एक त्रस और दूसरा स्थावर ।
प्रस जीव के भेदअस नाम कर्म के उदय से जीव को प्राप्त होने वाली पर्याय को त्रस कहते हैं । यह २, ३, ४ और ५ इन्द्रिय जीव हैं इनमें २, ३, ४ इन्द्रिय जीवों को विकलय कहते हैं। पंचेन्द्रिय जीवों में सनी अगनी ऐसे दो भेद हैं। मन सहित पंचेन्द्रिय जीवों में मनुष्य देव नारकीय और तीयं च ये चार भेद हैं । पुनः मनुष्य में आर्य और मलेच्छ ये दो भेद हैं । मन सहित तिर्यंच पंचेन्द्रियों में जल चर थलचर और नभ चर ऐसे तीन भेद हैं। मन रहित तिर्यच पंचेन्द्रियों में भी जलचर, स्थलचर, और नमचर ये तीन भेद हैं । तिर्यच जीव एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक रहते हैं। अलि, कृमि, शंख इत्यादि दो इन्द्रिय जीवों को स्पर्शन और रसन ये दो इन्द्रिय होते हैं और वचन काय श्वासोच्छावास और आयु ऐसे पांच प्राण होते हैं। खटमल, चीटी, बिन्छ आदि तीन इन्द्रिय जीव को एक घ्राण इन्द्रिय ज्यादा होता है। भ्रमर, पंतगा आदि चार इन्द्रिय जीव को चक्षु इन्द्रिय ज्यादा होता है। पानी में रहने वाले सर्प कई जाति के तोते और गोम गिरगिट आदि मनरहित पंचेन्द्रिय जीवको एक ज्यादा धोतींद्रिय होता है इनको ६ प्राण होते हैं । देव नारकी मनुष्य पशु प्रादि मन सहित पंचेन्द्रिय जीव को एक मन होता है इसलिए उसको १० प्राण होते हैं। इस प्रकार जीव को ६ से १० तक प्राण होते हैं और मति थुति अवधि मनः पर्याय केवल कुमति, कुश्रुति, कुअवधि ऐसे पाठ ज्ञानोपयोग और चक्षु, अचक्ष, कंवल ऐसे दर्शनोपयोग इस प्रकार ज्ञान होते हैं।
१-पंचेन्द्रिय और मन की सहायता से होने वाले ज्ञान को मतिज्ञान कहते हैं । २--मतिशान के निमित्त से वस्तु को विशेष रीति से जानने वाले को भूत ज्ञान कहते हैं। ये दोनों ज्ञान सामान्य रूप से कम ज्यादा परिमाण में प्रत्येक जीव में रहते हैं। ३-इन्द्रिय सहायता के बिना प्रास्मिक शक्ति से मुर्तीक पदार्थ को जानने वाले ज्ञान को अवधि ज्ञान कहते हैं।
४-इन्द्रिय सहायता के बिना प्रात्मीक शक्ति से दूसरों के मन में रहने वाले ज्ञान को जानने वाले को मनपर्यय ज्ञान कहते हैं। ये ज्ञान ऋधिधारी मुनि को ही प्राप्त होता है।
५-लोक और प्रलोक में रहने वाले अगोचर वस्तु को और भूत भविष्य और वर्तमान काल की वस्तु को हर समय जानने बाले ज्ञान को केवल ज्ञान कहते हैं। इसमें न जानने वाली कोई वस्तु ही नहीं। ये सर्व जीव पर्याप्त और अपर्याप्त हैं। इसके दो भेद हैं । शक्ति पूर्ण होने को पर्याप्त कहते हैं और अपूर्ण को अपर्याप्त कहते हैं। यह पर्याप्ति आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास भाषा, मन ऐसे छ: भेद है। प्रकृति शरीर पर्याप्ति को अनुकूल होने वाले पुद्गल परमाणु को ग्रहण करके वह गाढ़ और रस भाग रूप से परिणमन करने योग्य शक्ति को पूर्ण होने को आहार पर्याप्ति कहते हैं। उस पुद्गल पिण्ड से हड्डी रक्त आदि भिन्न-भिन्न रूप से परिणमन होने के परिणाम हों ऐसे शक्तिपूर्ण करने को शरीर पर्याप्ति कहते हैं। स्पर्शन रसना आदि इन्द्रिय