Book Title: Bhagavana  Mahavira aur unka Tattvadarshan
Author(s): Deshbhushan Aacharya
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 21
________________ रागद्वेषादि विकार रूप रहने वाले आत्मा के परिणाम को भाव कर्म में कहते हैं। रागद्वेषादि कषाय परिणाम के निमित्त से जीवों के साथ बद्ध होने वाले कार्माणानुभाव को कर्म से ही कार्माण परिणाम को कर्म रूप होकर ग्रात्म प्रदेश में पानी और दूध के समान एक क्षेत्रावगाह होकर रहने वाले को कर्म बंध कहते हैं। इस कर्म बंध के उदय से रागद्वेष आदि की उत्पत्ति श्रीर रागद्वेष श्रादि से उत्पन्न कर्म बंध होकर जीव को संसार में परिभ्रमण के कारण होता है इसी का नाम संसार है । इस कर्म बंध से ज्यादा कर्म रूपी जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश को धूलि यादि उड़कर आवरण करता है उसी प्रकार आत्म स्वरूप को आत्मा के स्वभाव से श्राच्छादन करता है । ये कर्म सामान्य रूप से ज्ञानावरणीय, दर्शनावणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र, अन्तराय, ऐसे प्राठ प्रकार के होते हैं । १ - जो श्रात्मा के ज्ञानगुणों को प्रच्छादित करता है उसको ज्ञानावरणीय कहते हैं। मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, Bafeज्ञानावरण, केवलज्ञानावरण ये चार प्रकार के हैं । २- जो जीव के ज्ञान दर्शन गुण को प्रकट होने नहीं देता है उसको दर्शनावरणीय कर्म कहते हैं । यह चक्षुदर्शनावरण, क्षुदर्शनावरण अवधिदर्शनावरण, केवलदर्शनावरण, निद्रा निद्रा, प्रचलाप्रचला इत्यादि रूप से नो प्रकार का है । ३- जो कर्म के उदय से जीव को श्राकुलता उत्पन्न करता है अर्थात् जो आत्मा के अव्याबाध गुण को घात करता है उसको वेदनीय कर्म कहते हैं । यह साता और साता रूप से दो प्रकार का है। ४ - जो आत्मा के सम्यक्त्व और चारित्र रूप को घात करता है उसको मोहनीय कर्म कहते हैं। ये दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय नाम से दो प्रकार का है। दर्शन मोहनीय के मिथ्यात्व, सम्यकृत्व मिथ्यात्व सम्यक्त्व प्रकृति ऐसे तीन भेद हैं । चारित्र मोहनीय में अनन्तानुबंधि क्रोध, मान, माया, लोभ, ये चार प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार । संज्वलन ये चार १६ कषाय और पांच हास्य, अरति, रति, भय, जुगुप्सा, स्त्री वेद, पुरुष वेद, नपुंसक वेद ऐसे कषाय मिलकर - इसके २५ भेद हैं । ५. - जो कर्म आत्मा को नरक गति तियंच गति मनुष्यगति और देव गति के शरीर में कुछ समय तक बंधन के रूप में रखता है उसको कर्म कहते है। यह प्रायु, तिर्यच आयु, देव आयु, मनुष्य आयु ऐसे चार प्रकार के हैं। ६ - नाम कर्म — आत्मा को नाना प्रकार जैसे शरीर श्रवयवादि रूप को उत्पन्न करने को नाम कर्म कहते हैं इसके ६३ भेद हैं । गति चार -नरक, तियंत्र, मनुष्य और देव । जाति पांच - एकेन्द्रिय, द्विइन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इंद्रिय और पंचेन्द्रिय । शरीर पांच प्रौदारिक, वैक्रियक, आहारक, तेजस और कार्माण । अंगोपांग तोन-प्रदारिक, वैक्रियक और बाहारक ( कुल ४+५+५+३=१७) निर्माण कर्म - अंगोपांगों की रचना करता है। बंधन नाम कर्म पांच - श्रदारिक, वैक्रियक, आहार, तैजस कार्माण ये शरीर प्रमाण को करता है और जुड़ाता है । संघात कर्म पांच - प्रौदारिक, कार्माण ये शरीर को छिद्र रहित करा देता है । संस्थान नाम कर्म छः हैं—सम चतुरस्त्र, न्यग्रोध परिमंडल, स्वाति, कुब्जक, वामन, हुंडक ये शरीर के ग्राकार ऊंचाई प्रादि को करते हैं । संहनन छ:- ब्रजवृषभनाराच, वज्रनाराच नाराच, अर्ध नाराच कीलक, असंप्राप्तपादिका ये बंधन कार्यों को करते हैं (ये कुल १७÷१+५+५+६+६=४० } स्पर्श पाठ— कठोर, कोमल, हल्का, भारी, ठण्डा, गरम, स्निग्ध रूक्ष ये माठ हैं। वर्ण पांच - काला, नीला, पीला, लाल और हरा । रस पांच खट्टा मीठा, नमकीन, तिक्त, चरपरा ये पांच हैं। आनुपूर्वी चार-नरक तियंच, मनुष्य देव मिलकर (ये ४०+८+ ५ / ६+४=६३) अगुरु, लघु, उपघात, श्रातप और उद्योत विहायोगति । १०

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