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द्रव्याथिक नय से रागादि विकल्प रूप उपाधियों से रहित तथा अपनी आत्मा से उत्पन्न सुख रूपी अमृत का भोगने वाला है, तो भी अशुद्ध नय की अपेक्षा उस प्रकार के सुख और अशुभ कर्म से उत्पन्न दुख का भोगने वाला होने के कारण भोक्ता है। "संसारत्थो" यद्यपि जीव शुद्ध निश्चय नय से संसार रहित और नित्य प्रानन्द एक स्वभाव का धारक है, फिर भी अशुद्ध नय की अपेक्षा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव इन पांच प्रकार के संसार में रहता है, इस कारण संसारत्थो है। "सिद्धो" यद्यपि यह जीव व्यवहार नय से निज प्रात्मा की प्राप्ति स्वरूप जो सिद्धत्व है उसके प्रतिपक्षी कर्मो के उदय से प्रसिद्ध है, तो भी निश्चय नय से अनन्त ज्ञान और अनन्त गुण स्वभाव से सिद्ध है। “सो" वह इस प्रकार के गुणों से युक्त जीव है।" विस्सोडळगई यद्यपि व्यवहार से चार गतियों को उत्पन्न करने वाले कर्मों के उदय वश ऊँचा, नीचा तथा तिरछा गमन करने वाला है। फिर भी निश्चय नय से केवल ज्ञानादि अनन्त गुणों की प्राप्ति स्वरूप जो मोक्ष है, उसमें पहुँचने के समय स्वभाव से ऊध्र्वगमन करने वाला है। यहाँ पर खंडान्वय की अपेक्षा शब्दों का अर्थ कहा गया है तथा शुद्ध प्रशुद्ध नयों के विभाग से नय का अर्थ भी कहा है।
६-प्रदेशत्व :-इस शक्ति से एकेक द्रव्य में सर्वदा एक आकार होकर रहता है। उपयोग का अर्थ-पदार्थ का ज्ञान कर लेने वाले आत्मा की क्रिमा है।
सुख (ब्रह्मानन्द) सत्ता, जान उपयोग आदि ये भाव प्राण है, इन्द्रिय, वल, आयुष्य स्वासोच्छवास से द्रव्य प्राण है। समस्त पदार्थों के अस्तित्व को ग्रहण करने वाली सत्ता को महा सत्ता कहते हैं ।
२-उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम :-ये कम की चार अवस्थायें हैं कम फल देने में सिद्ध होने को उदय कहते हैं। फल देने वाली जो कर्म सत्तायें हैं, उन कारणों में कुछ कम बिना फल दिये हुये ही उपशम होने वाले भाव को उपशम कहते हैं। सम्पूर्ण कर्म नाश होने को क्षय कहते हैं । कुछ नीचे दबकर कुछ भाग कर्मों के उपशम होने को क्षयोपशाम कहते हैं।
औदविकभाव ---उदय में आने वाले चार गति, चार कषाय, तीन विग, मिथ्यादर्शन, अजान, असंयम, असिद्धत्व, छः लेश्या ये २१ भाखों को औदपिक कहते हैं।
औपशमिक भाव-कर्म के क्षय होकर उत्पन्न होने वाले भाव को क्षायिक भाव, कहते हैं। क्षायिक दान क्षायिक लाभ, भोगोपभोग वीर्य, सम्यकत्व चारिख ऐसे भावों को क्षायिक भाव कहते हैं।
क्षायिकीपरामिक-मयोपशम से उत्पन्न होने वाले मति ज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान मनः पयज्ञान कुमति, कुश्रुति, विभंग ये तीन शान को अमान कहते हैं । वम अवक्ष अवधि दर्शन ग्रे तीन अयोपशामिक दान लाभ भोगोगभोग और वीर्य ये पांच लब्यि हैं। क्षायोपशमिक सम्यक्त्व मराम चारित्र संयमासंयम ऐसे १८ प्रकार के क्षयोपशमिक भाव है। पारिगामिक भाव-कर्म के उदयादि निमित्त पाने पर भी आत्मा के साथ अनादि काल से रहने वाले जीवत्व, भव्यत्व, अभन्यत्व ऐसे परिणामी भाव हैं। . स्थावर जीव-परिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, बनस्पतिकायिक, ऐसे पांच प्रकार के हैं। मसूर की दाल के समान पश्चिीकायिक जीव हैं। जन बिन्दु के आकार के समान जल कायिक जीव है । सूई को मिलाकर गठडी में बंधे हुये के समान अग्निकायिक जीव है। ध्वजा के आकार के समान वायुकायिक जीव हैं । वृक्ष, भाइ, बेल, बाँस, घास आदि अनेक आकार को धारण कर जीने वाले वनस्पतिकापिक जीव होते हैं। एकेन्द्रिय जीव और भी अनेक प्रकार के है।
२–केवल स्पर्श और रसना इन्द्रिय को प्राप्त हुये शंख अति शीप मोती आदि अनेक प्रकार के दो इन्द्रिय जीव हैं । ३-स्पर्शन, रसना और प्राणेन्द्रिय मात्र को धारण किये हुये चींटी आदि तीन इन्द्रिय जीव हैं। ४--स्पर्शन, रसना, धारण और चक्ष ये चार इन्द्रियों को धारण करने वाले भ्रमरादि चार इन्द्रिय जीव हैं।
-स्पर्शन, रसना, धारण, वन और श्रोत इन पाँच इन्द्रियों को ग्रहण करने वाले मनुष्य, मृग, पशु, पक्षी, देव, नारक आदि ये पांच इन्द्रियों को धारण करने वाले जीव हैं। इनको पंचेन्द्रिय जीव कहते हैं। कुछ इन जीवों के हृदय में अष्ट दलकमलाकार