Book Title: Bhagavana  Mahavira aur unka Tattvadarshan
Author(s): Deshbhushan Aacharya
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 17
________________ । बाद परमात्मा बन सकता है। परन्तु कर्म के प्रावरण में भूलकर बन्द होकर ये जीव अपने प्रनन्त वैभव के साथ संसार सागर में भ्रमण करते आ रहे हैं । संसार स्वरूप को कर्म का ढक्कन ऐसा जैन सिद्धान्त ने निरूपण किया है। इतना कह करके चुपचाप नहीं बैठा है परन्तु संसार बंधन से मुक्त होने की अपेक्षा करने वाले समस्त जीवों को भगवान जिनेन्द्र की पदवी प्राप्त करने के लिये अनुकरण करने योग्य प्राध्यात्म मार्ग को भी प्रतिपादन किया है अथवा बता दिया है। जैन धर्म सृष्टि कर्ता को कभी नहीं मानता है प्रत्येक जीव का गिरना उठना अपने-अपने कारण से होता है। ऐसा जन सिद्धान्त प्रतिपादन करता है। उठने की अपेक्षा करने वाला अपने बल के द्वारा उठ सकता है । इसी प्रकार उनके जन्म और मरण की स्थिति और भय के द्वारा बाध्य रहते हैं अपने कर्म के अनुसार जन्म लेना जीना मरना होता है। जिस समय कर्म के साथ प्रात्मा का मित्रत्व सम्बन्ध हो जाता है। उससे जगत प्रारम्भ हो जाता है। कर्म के सहवास को प्रात्मा साक्षी पूर्वक त्याग कर देता है उसी समय वह जगत विलय होता है अर्थात् संसार का नाश हो जाता है। एक बार सम्पूर्ण कर्मों को जीतने से या नाश करने से यही जीव जिनेन्द्र होकर उसके बाद सिद्ध पद को प्राप्त होता है। पुनः संसार में लौट कर नहीं पाता। जैन धर्म की दृष्टि से देखने से प्रत्येक जीव अपने भव भ्रमण के कार्य में सृष्टि का होकर बर्तता है । वही जीव कर्तव्य का कर्ता बन कर र्म से रहित होकर प्रखण्ड सिद्धात्मा की प्राप्ति करने वाला होता है। जन्म जरा और मरण अर्थात् सृष्टिकर्ता स्थिति कर्तव्य ये तीन पद रूपी पदवी को अर्थात् इन तीन कर्मी से जब यह पार हो जाता है तब यह जीव निरंजन पद को प्राप्त होता है। जीव और अजीद इन दोनों की मित्रता से यह जगत और जगत का व्यापार चलता है। ये दोनों मित्र द्रव्य हैं। इन दोनों का सम्बन्ध अलग अलग करना देवों के हाथ में भी नहीं है और इसको कोई भी एक दूसरे से अलग नहीं कर सकता ये दोनों द्रव्य आकाश में प्राथय को पाकर अनन्त काल से धर्म द्रध्य की सहायता से धर्म करते हुए अधर्म द्रव्य के प्राश्रय से विश्राम करते हैं यह व्यापार हमेशा परम्परा से चला आ रहा है । जीव और अजीव पयाय रूप में परिरमण करने वालों में से हैं ऐसा देखने पर भी तद् रूप जगत स्थायी है। कल्प काल में भी तीर्थंकर अजीव के कारागार से पाक होकर जगत के व्यापार के रहस्य को कर्म के साथ अपने द्वारा चलाया हया अनेक प्रकार के मायामयी भव्य जीवों को समभाते आ रहे हैं। विश्व जब से है तब से जैन धर्म भी है। जब तक यह विश्व रहेगा तब तक जैन धर्म भी रहेगा। पहले भी तीर्थकर इसी मर्म को समझाते पा रहे हैं और वर्तमान काल में भी रहने वाले हैं अथवा विदेह क्षत्र में प्रभी भी मौजूद हैं भविष्य काल में तीर्थकर आने वाले हैं। भगवान के अवतार को आवन्तर नता है। संसार में भ्रमण करने वाले चेतन ही हमारे समान कर्म रूपी जाल से पार होकर तीर्थकर होंगे ऐसे अपने अन्दर स्मरण रखना चाहिये अर्थात् मन में ऐसी भावना रखनी चाहिये । एक-एक चेतन देवत्व होने के रहस्य का जिन धर्म ने सम्पूर्ण जगत को उपदेश दिया है। जिनको संसार से मुक्त होना है उसे इस धर्म की परीक्षा करके देखना चाहिये सम्पूर्ण जीव संसार से मुक्त हो करके जिनेन्द्र होने की ही कामना करते हैं । गणों के समह को द्रव्य कहते हैं । द्रष्य के स्वभाव में ही सर्व अवस्था में भी जो रहता है उसको गुण कहते हैं। गुणों में जो द्रव्य में ही हमेशा रहते हैं उसको सामान्य गुण कहते हैं। विशेष गुणों को विशिष्ट कहते हैं । अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, अगूरु लघुत्व और प्रदेसत्व ये छ: द्रव्य सामान्य रूप होकर सर्व द्रव्य में रहते हैं । अर्थात् चेतन जीव के विशिष्ट गुण हैं। विशिष्ट गुण होने के कारण उसके विशेष गुण कहते है। पदव्य जीव, अजीव दोनों मिलकर जगत की उत्पत्ति करते हैं प्रात्मा कर्म के साथ मिलकर जीवित रहता है क्या ? अजीव द्रव्य पूदगल, धर्म, अधर्म, अाकाश और काल ऐसे ये पाँच है। ये दोनों को जीव के साथ सम्बन्ध करने से छह द्रव्य होते

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