Book Title: Bhagavana  Mahavira aur unka Tattvadarshan
Author(s): Deshbhushan Aacharya
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 16
________________ प्रतिभा अर्थात् मूर्ति तीर्थ जप तप आदि क्रिया उसके धर्म रूप होकर प्रात्म रूप की प्राप्ति के लिये साधन बन जायेंगे । जब तक आत्मा को वीतराग भाव उत्पन्न नहीं होता है तब तक प्रात्मा में लगे हुए राग द्वेष का नाश नहीं होगा। जब तक राग द्वेष परिणति प्रादि में लगे रहेंगे तब तक सद्धर्म की प्राप्ति भी नहीं हो सकती । जब प्रात्मा में सुख उत्पन्न होता है तब आत्मा को पुण्य बन्ध होता है। जब अशुभ उत्पन्न होता है तो प्रात्मा में रागद्वेष पैदा करने वाले अशुभ आदि राग उत्पन्न होते हैं। वो ही कोई अशुभ राग पाप बन्ध का कारण होता है जहाँ सच्चा ज्ञान और चारित्र होता है वहीं धर्म होता है। जब तक मूल कर्म का बन्धन है तब तक आत्मा में पराजय अवस्था मानी जाती है। जब पराजय अवस्था कर्म बन्ध से मुक्त होती है तब वह आत्मा स्वतन्त्र कहलाता है। इसलिए प्रात्मा का प्रबन्ध होना ही ठोक है। वही सच्चा सुख है । ऐसे उत्तम सुख के लिए कारण रूप प्रात्म स्वभाव रूप ऐसा धर्म ही कारण है। जैन धर्मजैन धर्म का अर्थ जिन्होंने पंचेन्द्रिय विषय को जीत लिया है उन्हें जिन कहते हैं उस धर्म को पालन करने वालों को जन कहते हैं। जिन्होंने अरिरज रहस्य यानी कर्म शत्रु को जीत लिया है उनको जिन कहत है। उन्हाने प्राप्त किया जा यात्म स्वरूप उसको पात्म धर्म या जैन धर्म कहते हैं । उन्हीं के कहे हुए मार्ग के अनुसार चलने वाले मानव को जैन कहते हैं । जैन धर्म का अर्थ ज्ञानावरणीय आदि कर्म रूपो जाल को नाश किये हुआ चेतन प्रात्मा को जिन कहते हैं। सम्पूर्ण कर्म रूपी शत्रु को जिन्होंने नाश किया उनको परमात्मा कहते हैं। सर्वज्ञ कहते हैं, ऐसे परिपूर्ण अवस्था में रह कर सच्चे धर्म का निरूपण करने वाला धर्म निश्चय से प्रामाणिक पहलाता है । यह जिन धर्म अनेकान्तमयी है अर्थात् जैन धर्म स्याद्वादमयी है जगत के अनेक प्रकार के विकल्पों को पृथक करके तदनन्तर जिस-जिस में जितनी-जितनी शक्ति है इस बात को निर्णय करके समन्वय रूप को देखते हुये सच्चे सार को निचोड़ना जैन धर्म एक दृष्टि होने से दूसरे मुख्य स्यावाद की नींव और अहिंसा रूपी स्तम्भ के ऊपर जैन धर्म स्थापित है। किसो के विचार के साथ अन्याय न होवे और किसी जीव को दुःख न होवे यही जैन धर्म का सार है। ___ इस धर्म के दो भेद हैं—एक वस्तु स्वभाव धर्म है जैसे अग्नि का स्वभाव जलना, वायु का स्वभाव उड़ना उसी प्रकार जीब का स्वभाव चेतन रूप है। दूसरा आचार चारित्र उसको भी धर्म कहते हैं । स्वभाव रूपी धर्म जड़ और चेतन इन दोनों में अपने अपने स्वभाव में हमेशा रहते हैं। स्वभाव से रहित इस जगत में कोई धर्म नहीं है। अर्थात् ये दोनों अनादि काल से परस्पर संबंधित होते पा रहे हैं। भगवान जिनेन्द्र देव दोनों धर्मो का प्रतिपादन करते आ रहे है। वस्तु स्वभाव के भिन्न भिन्न धर्म को दर्शन कहते हैं । इस लक्षण से सिद्धि उत्पन्न होती है । तथा उसकी प्राप्ति होती है उस सिद्धि को प्राप्त करने के लिए आचरण का रूप धारण करना होता है । इससे प्रत्येक धर्म में अपना ही दर्शन रहता है। दर्शन में प्रात्मा क्या है ? परलोक क्या है ? विषम क्या है ? परमात्मा स्वरूप क्या है ? आदि आदि प्रश्नों का विचार रहता है। प्राचरण रूपी धर्म के प्रतिपादन में आत्मा परमात्मा होने के मार्ग को दिखाता हैं । हमेशा विचार करना आचरण के ऊपर होता है। इससे दर्शन धर्म को रूपित करता है इसलिए धर्म के विवेचन में दर्शन को चारित्र का समालोचन करना होता है । जैन दर्शन वस्तु स्वभाव निरूपण के अन्तर्गत होता है । इससे उसको हम धर्म समझते हैं। क्योंकि उस परमात्मा में रहने वाले अन्तर को ज्ञान उत्पन्न होते ही चारित्र का अविलम्बन कर मानों मोक्ष का साधक बन जाता है। उससे जैन धर्म के माने जिनेन्द्र देव के द्वारा उपदेश किया हमा ऐसा विचार तथा उपचार जैन धर्म है, पूर्वापर विरोध रहित है, प्रत्यक्ष प्रमाण से देखने से इसमें किसी प्रकार का दोष नहीं मिलता है। बस्तु स्वरूप को केवल यथार्थ से निरूपण करता है। शंकर रूप जिनेन्द्र के द्वारा उपदेश दिया हमा सम्पूर्ण जीव को यह हितकारी होता है । सम्पूर्ण मिथ्या मार्ग को जैन धर्म निराकार करता है। जैन धर्म के अनुसार जगत में प्रत्येक प्राणी अव्यक्त परमात्मा है हर एक मात्मा अपने सहज स्वरूप को जानने के ५

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