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को लक्ष्य में रखते हुये ग्रन्थकार महोदय ने स्वयं ही ग्रन्थ में आगे यह प्रतिपादन किया है कि धर्म के प्रभाव से कुत्ता भी ऊंचा उठकर (अगले जन्म में) देवता बन जाता है और ऊंचा उठा हुअा देवता भी पाप को अपनाकर धर्मभ्रष्ट हो जाने से (जन्मान्तर में) कुत्ता बन जाता है। साथ ही यह भी बतलाया है कि धर्म सम्पन्न एक चाण्डाल का पुत्र भी देव है-आराध्य है और स्वभाव से अपवित्र शरीर भी धर्म (रत्नत्रय) के संयोग से पवित्र हो जाता है। अतः अपवित्र शरीर एवं होन जाति धमत्मिा तिरस्कार का पात्र नहीं-निजू गुप्सा अंग का धारक धर्मात्मा ऐसे धर्मात्मा से घृणा न रखकर उसके गुणों में प्रीति रखता है।
और जो जाति प्रादि किसी मद के पशवी होकर ऐसा नहीं करता, प्रत्युत इसके ऐसे धर्मात्मा का तिरस्कार करता है वह वस्तुत: प्रात्मीय धर्म का तिरस्कार करता है-फलतः आत्म धर्म से विमुख है, क्योंकि धार्मिक के बिना धर्म का कहीं अवस्थान नहीं और इसलिये धार्मिक का तिरस्कार ही धर्म का तिरस्कार है-जो धर्म का तिरस्कार करता है वह किसी तरह भी धर्मात्मा नहीं कहा जा सकता। ये सब रातें समन्तभद्र स्वामी की धर्म-मर्मज्ञता के साथ उनकी धर्माधिकार-विषयक उदार भावनामों की द्योतक हैं और इन सबको दष्टि-पथ में रखकर ही सत्वान् पद सब प्रकार के विशेषणों से सहित प्रयुक्त हुया है।
अब रही समीचीन विशेषण का वात, धर्म को प्राचीन या अर्वाचीन मादि न बतलाकर जो समीचीन विशेषण से विभषित किया है वह बड़ा ही रहस्यपूर्ण है, क्योंकि प्रथम तो जो प्राचीन है वह समीचीन भी हो ऐसा कोई नियम नहीं है। इसी तरह जो अर्वाचीन (नवीन) है वह असमीचीन ही हो ऐसा भी कोई नियम नहीं है। उदाहरण के लिये अनादि-मिथ्यात्व तथा प्रथमोपशम-सम्यक्त्व को लीजिये, अनादि कालीन मिथ्यात्व प्राचीन से प्राचीन होते हुये भी समीचीन (यथावस्थित वस्तुतत्व के श्रद्धानादिरूप में) नहीं है और इसलिये मात्र प्राचीन होने से उस मिथ्याधर्म का समीचीन धर्म के रूप में ग्रहण नहीं किया जा सकता । प्रत्युत इसके, सम्यक्त्व गुण जब उत्पन्न होता है तब मिथ्यात्व के स्थान पर नवीन ही उत्पन्न होता है, परन्तु नवीन होते हुये भी बह समीचीन है और इसलिये सद्धर्म के रूप में उसका ग्रहण है-उसकी नवीनता उसमें बाधक नहीं होती। नतीजा यह निवाला कि कोई भी धर्म चाहे वह प्राचीन हो या अर्वाचीन, यदि समीचीन है तो वह ग्राह्य है अन्यथा ग्राह्य नहीं है। और इसलिये प्राचीन अर्वाचीन से समीचीन का महत्व अधिक है, वह प्रतिपाद्य धर्म का असाधारण विशेषण है, उसकी मौजूदगी में ही अन्य दो विशेषण अपना कार्य भली प्रकार करने में समर्थ हो सकते हैं, अर्थात धर्म के समीचीन (यथार्थ) होने पर ही उसके द्वारा कर्मों का नाश और जीवात्मा को संसार के दुःखों से निकाल कर उत्तम मुख में धारण करना बन सकता है -अन्यथा नहीं। इसी से समीचीनता का ग्राहक प्राचीन और अर्वाचीन दोनों प्रकार के धर्मों को अपना विषय बनाता है अर्थात् प्राचीनता तथा अर्वाचीनता का मोह छोड़कर उनमें जो भी यथार्थ होता है उसे हो अपनाता है। दूसरे, धर्म के नाम पर लोक में बहुत सो मिथ्या बातें भी प्रचलित हो रही हैं उन सबका विवेक कर यथार्थ धर्मदेशना की सूचना को लिये हुये भो यह विशेषण पद है। इसके सिवाय, प्रत्येक वस्तु को समीचीनता (यथार्थता) उसके अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव पर अवलम्बित रहती है दूसरे के द्रव्य क्षेत्र काल भाव पर नहीं । द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव में से किसी के भी बदल जाने पर वह अपने नस रूप में स्थिर भी नहीं रहती और यदि द्रव्य-क्षेत्र काल-भाव की प्रक्रिया विपरीत हो जाती है तो बस्तु भी अवस्तु हो जाती है अर्थात् जो ग्राह्य वस्तु है वह त्याज्य और जो त्याज्य है वह ग्राह्य बन जाती है। ऐसी स्थिति में धर्म का जो रूप समोचीन है वह सबके लिये समीचीन ही है और सब अवस्थानों में समीचीन है ऐसा नहीं कहा जा सकता-वह किसी के लिये और किसो अवस्था में असमीचीन भी हो सकता है। उदाहरण के रूप में एक गृहस्थ तथा मुनि को लोजिये, गृहस्थ के लिये स्वदारसन्तोष, परिग्रहपरिमाण अथवा स्थलरूप से हिंसादि के त्यागरूप प्रत समीचीन धर्म के रूप में ग्राह्य हैं-जब कि वे मुनि के लिये उस रूप में ग्राह्य नहीं हैं-एक मुनि महाव्रत धारण कर यदि स्वदार गमन करता है, धन-धन्यादि बाह्य परिग्रहों को परिमाण के साथ रखता है और मात्र संकल्पी हिसा के त्याग का ध्यान रखकर शेष प्रारम्भी तथा विरोधी हिंसानों के करने में प्रवृत होता है तो वह अपराधी है, क्योंकि गहस्थोचित समीचीन धर्म उसके लिये समीचीन नहीं है। एक गृहस्थ के लिये भी स्वदार-सन्तोष व्रत वहीं तक समी
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