Book Title: Bhagavana  Mahavira aur unka Tattvadarshan
Author(s): Deshbhushan Aacharya
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 13
________________ धर्मः सुखस्य हेतुहेतुर्न विरोधकः स्वकार्यस्य । तस्मात्सुखभगभिया माहूर्धर्मस्य विमुखस्त्वम् ।। २० ।। धर्म करते हुए भी यदि कभी दुःख उपस्थित होता है तो उसका कारण पूर्वकृत कोई पापकर्म का उदय ही समझना चाहिये, न कि धर्म ! धर्म शब्द का व्युत्पत्यय अथवा निरुकत्यर्थ भी इसी बात को सूचित करता है और उस अर्थ को लेकर ही तीसरे विशेषण की घटना (सष्टि) की गई है । उसमें सुख का उत्तम विशेषण भी दिया गया है, जिससे प्रकट है कि धर्म से उत्तम सुख की शिवसुख की अथवा यों कहिये कि अबाधित सुख की प्राप्ति तक होती है तब साधारण सुख तो कोई चीज नहीं है वे तो धर्म से सहज में ही प्राप्त हो जाते हैं । सांसारिक दू:खों के छूटते से सांसारिक उत्तम सुखों का प्राप्त होना उसका आनुषंगिक फल है--धर्म उसमें बाधक नहीं और इस तरह प्रकारान्तर से धर्म संसार के उत्तम सुखों का भी साधक है, जिन्हें ग्रन्थ में अभ्युदय शब्द के द्वारा उल्लिखित किया गया है। इसी से दूसरे प्राचार्यों ने धर्मः सर्वसुखाकरो हितकरो इत्यादि वाक्यों के द्वारा धर्म का कीर्तन किया है। और स्वयं स्वामी समन्तभद्र ने यह प्रतिपादन किया है कि जो अपने प्रात्मा को इस (रत्नत्रय) धर्मरूप परिणत करता है उसे तीनों लोकों में "सर्वार्थसिद्धि" स्वयंवरा की तरह वरती है अर्थात् उसके सब प्रयोजन अनायास सिद्ध होते हैं । और इसलिये धर्म करने से सुख में बाधा माती है ऐसा समझना भूल ही होगा। वास्तव में उत्तम सुख जो परतन्त्रतादि के प्रभावरूप शिव सुख है और जिसे स्वयं स्वामी समन्तभद्र ने शुद्धसुख बतलाया है उसे प्राप्त करना ही धर्म का मुख्य लक्ष्य है.. इन्द्रियसखों अथवा विपयभोगों को प्राप्त करना धर्मात्मा का ध्येय नहीं होता । इन्द्रियसुख बाधित, विषम, पराश्रित, भंगुर, बन्धहेतु और दुःखमिश्रित आदि दोषों से दूषित है। स्वयं स्वामी समन्तभद्र ने इसी श्लोक में कर्मपरवशे इत्यादि कारिका द्वारा उसे कर्मपरतन्त्र, सान्त (भंगुर), दुःखों से अन्तरित-एकरसरूप न रहनेवाला तथा पापों का बीज बतलाया है । और लिखा है कि धर्मात्मा (सम्यग्दष्टि) ऐसे सुख की प्राकांक्षा नहीं करता। और इसलिए जो लोग इन्द्रिय-विषयों में प्रासक्त हैं—फसे हये हैं-अथवा सांसारिक सुख को ही सब कुछ समझते हैं वे भ्रान्त चित्त हैंउन्होंने वस्तुतः अपने को समझा ही नहीं और न उन्हें निराकुलतामय सच्चे स्वाधीन सुख का कभी दर्शन या आभास ही हुआ है। यहाँ पर इतना और भी जान लेना चाहिए कि उक्त तीसरे विशेषण के संघटक वाक्य "संसारदुःखतः सत्वान योधरत्युत्तमे सूखे" में सत्वान पद सब प्रकार के विशेषणों से रहित प्रयुक्त हया है और इससे यह स्पष्ट है कि धर्म किसो जाति या वर्ग-- विशेष के जीवों का ही उद्धार नहीं करता बल्कि ऊंच नीचादि का भेद न कर जो भी जीव-भले ही वह म्लेच्छ, चांडाल, पा, नारकी, देवादिक कोई भी क्यों न हो उसको धारण करता है, उसे ही वह दुःख से निकालकर सुख में स्थापित करता है और उस सुख की मात्रा धारण किये हये धर्म की मात्रा पर अवलम्बित रहती है जो अपनी योग्यतानुसार जितनी मात्रा में धर्माचरण करेगा वह उतनी ही मात्रा में सूखी बनेगा और इसलिए जो जितना अधिक दुःखित एवं पतित है उसे उतनी ही अधिक धर्म की आवश्यकता है और वह उतना ही अधिक धर्म का प्राश्रय लेकर उद्धार पाने का अधिकारी है। वस्तुतः पतित उसे कहते हैं जो स्वरूप से च्युत-स्वभाव में स्थिर न रहकर इधर-उधर भटकता और विभाव-परिणतिरूप परिणमता है और इसलिए जो जितने अंशों में स्वरूप से च्युत है वह उतने अंशों में ही पतित है। इस तरह सभी संसारी जीव एक प्रकार से पतितों की कोटि में स्थित और उसको श्रेणियों में विभाजित हैं। धर्म जीवों को उनके स्वरूप में स्थिर करने वाला है, उनकी पतितावस्था को मिटाता हुना उन्हें ऊँचे उठाता है और इसलिए पतितोद्धारक कहा जाता है। कप में पड़े हुये प्राणी जिस प्रकार रस्से का सहारा पाकर ऊँचे उठ पाते हैं और अपना उद्धार कर लेते हैं उसी प्रकार संसार के दुःखों में डूबे हुए पतित जीव भी धर्म का प्राश्रय एवं सहारा पाकर ऊंचे उठ पाते हैं और दुःखों से छूट जाते हैं। स्वामी समन्तभद्र 'तो प्रतिहीन (नीघातिनीच) को भी लोक में अतिगुरु (अत्युच्च) तक होना बतलाते हैं ऐसी स्थिति में स्वरूप से ही सब जीवों का धर्म के ऊपर समान अधिकार है और धर्स का भी किसी के साथ कोई पक्षपात नहीं हैप्रन्थकार के शब्दों में धर्म जीवमात्र का बन्धु है तथा स्वाश्रय में प्राप्त सभी जीवों के प्रति समभाव से वर्तता है। इसी दष्टि

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