Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 2
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti

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Page 19
________________ प्रस्तावना प्रतिदिन नगरी बसाकर आहार कराते हैं, वहाँ बड़ा पुण्य है, सब साधुओं ने मुनिराज चन्द्रगुप्त का केश लोंच किया कुछ प्रायश्चित दे कर शुद्धि की, क्योंकि मुनिराज देव लोगों के हाथ का आहार नहीं कर सकते हैं, चन्द्रगुप्त मुनिराज वहाँ ही तपस्या कर समाधिस्थ हो गये, सर्व मुनि संघ उत्तरापथ की ओर वापिस लौटा, उज्जैनी नगरी के अन्दर रहने वाले साधुओं की चर्या बिगड़ चुकी थी, चारित्र से भ्रष्ट हो गये थे, देखकर मन में बड़ा दुःख करने लगे, जब उज्जैनी के साधु संघों में आगतनि ग्रंथ मुनिराज को वंदन किया तो साधुओं ने उनके प्रति वंदना नहीं की और कहा कि आप सबकी चर्या बिगड़ गई है, सब वापिस निर्ग्रन्ध दीक्षा धारण करो, निर्ग्रन्थ मार्ग ही सच्चा मोक्ष का मार्ग है, निर्ग्रन्थ हुए बिना जीव को मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती है। आदि सच्चा मार्ग का उपदेश दिया, बहुत साधुओं ने फिर जिन दीक्षा धारण करली, लेकिन कुछ हठ धर्मी प्रमादि चरित्र पालन करने में आलसियों ने वापस निर्ग्रन्थ दीक्षा नहीं लेकर जैसे के तैसे ही बने रहे और सवस्त्र मुक्ति मानने लगे, आगम ग्रंथों में भी फेरबदल करके श्वेताम्बर मत की स्थापना कर दी। ___भगवान महावीर के मोक्षोपरान्त २०० वर्ष के बाद जिन शासन में दो धाराएं हो गई, एक दिगम्बर, एक श्वेताम्बर यह घटना भद्रबाहु स्वामी के काल में हुई। भद्रबाहु स्वामी ही अन्तिम श्रुतकेवली थे। आप ही ने इस भद्रबाहु संहिता का प्रतिपादन किया था, आप अष्टाङ्ग निमित्त के ज्ञाता थे। यह ग्रंथ प्रथम वर्तमान में उपलब्ध सत्ताइस अध्याय में ही है, आगे की उपलब्धि काल दोष से नष्ट हो गई, इस ग्रंथ का प्रतिपादन तो अन्तिम श्रुतकेवली ने किया, सैंकड़ों वर्ष तक तो यह ग्रंथ मौखिक रूप में श्रुत परम्परा से चलता रहा, एक आचार्य ने दूसरे आचार्य से कहा परंपरा से एक दूसरे आचार्य ने एक दूसरे का प्रतिपादन किया। जब आगम ग्रंथों का लेखन कार्य ताड़पत्रों पर होने लगा, सर्वप्रथम. भूतबली. पुष्पदंत ने एवं नागहस्ति, आर्यमंक्षु आचार्यों ने प्रारंभ किया, उसी कड़ी में इस ग्रंथ का भी लेखन द्वितीय भद्रबाहु स्वामी ने श्रुतकेवली भद्रबाहु के द्वारा प्रतिपादित भद्रबाहु संहिता का उन की वाणी के अनुसार रचना कर संस्कृत श्लोकों में लिखा, यह ग्रंथ वहीं है। कुछ विद्वानों ने इस ग्रंथ को भद्रबाहु श्रुतकेवली का न मानकर किसी भट्टारक की कृति माना है, और एक मनमाना बेढंगा संकलन माना है लेकिन मेरी मान्यता ऐसी है कि जिसकी भी ऐसी मान्यता है वह गलत है, ना समझी का ही काम है, ऐसे एक महान ग्रंथ के प्रति ऐसा लिख देना अर्थात् उसको आचार्यों की कृतियों पर विश्वास नहीं, आचार्यों पर विश्वास नहीं, वर्तमान में विद्वान

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