Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 2
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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भद्रबाहु संहिता
उत्पन्न हो गये, अपनी चर्या से सब साधु भ्रष्ट हो गये। धीरे धीरे बारह वर्ष दुर्भिक्षकाल के समाप्त हो गये। उधर भद्रबाहु स्वामी बिहार करते हुए दक्षिण पथ में पहुँच गये, अन्तिम मुकुट बद्ध राजा चन्द्रगुप्त को दीक्षित कर अपने साथ में ले गये थे। भद्रबाहु स्वामी श्रवण बेलगोल नगर के निकट चन्द्रगिरि पर्वत पर पहुंचे, एक गुफा में प्रवेश करते समय निःसही निःसही शब्द का उच्चारण किया, तब वहाँ के देव यक्ष ने कहा अत्रैव तिष्ठः अत्रैव तिष्ठः, इस प्रकार देव के मुख से सुनकर निमित्त से जान लिया की मेरी आयु बहुत कम रह गई है। सर्व संघ को समीप बुलाकर आदेश दिया कि आप सब आगे बिहार करे मैं तो इसी पर्वत पर समाधिस्थ होऊँगा, आचार्य पद बिसर्जन के साथ समाधि धारण कर वहाँ ही स्थित हो गये, मुनिराज चंद्रगुप्त से भी साथ में जाने को कहा लेकिन विशेष गुरु भक्ती के कारण चन्द्रगुप्त मुनिराज भद्रबाहु स्वामी की सेवा करने को वहाँ ही रह गये, कुछ ही दिनों में भद्रबाहु स्वामी की समाधि हो गई, ये ही अन्तिम श्रुतकेवली थे, अब इनके बाद पूर्ण द्वादशाग श्रुतज्ञान को धारण करने वाला कोई नहीं रहा। श्रुतकेवली परम्परा भी समाप्त हो गई। चन्द्रगुप्त मुनिराज वहाँ ही गुरु चरणों की सेवा करके रहने लगे ये भी मुनिराज बड़े पुण्यात्मा थे, इनके पुण्य से प्रतिदिन देव लोग नगर बसा कर उनको आहार कराते थे। कछ समय के बाद अन्यत्र बिहार कर मुनि संघ वापिस लौट कर उस गिरि पर आया, देखा की चन्द्रगुप्त मुनिराज तपस्या में लीन है, बड़ी बड़ी जटा व दाड़ी बढ़ी हुई देखकर सब लोग ये समझे कि ये तपस्या से च्युत हो गये है, जंगल के फल फूल खाकर अपना निर्वाह करते होंगे, चंद्रगुप्त महाराज ने साधुओं को नमोऽस्तु किया तो साधुओं ने उनको प्रतिनमोऽस्तु नहीं किया, बिना आहार किये ही साधु संघ वापिस लौटने लगा, तब मुनिराज ने कहा, गुरुओं के बिना आहार किये यहाँ से विहार मत करिये तब साधुओं ने कहा यहाँ साधुओं को नगर के अभाव में आहार कहाँ से प्राप्त होगा, तब चन्द्रगुप्त मुनिराज ने कहा कि यहाँ से उत्तर की और एक सुन्दर नगरी है मैं वहाँ ही आहार के लिये जाता हूँ आप सब का भी वहाँ ही आहार हो जायेगा, चर्या का समय हुआ साधु आहार के लिये निकले सबका षड़गाहन हुआ, आहार हुआ और वापिस पर्वत पर आये, एक क्षुल्लकजी वहाँ ही कमण्डल भूल गये जब वापिस जाकर देखा तो, न वहाँ नगरी ही थी और न श्रावक वर्ग ही थे। कमण्डल एक पेड़ पर लटका हुआ देखा, कमण्डल लेकर वापिस आकर यह घटना साधुओं को सुनाई गई तब सभी साधु वर्ग आश्चर्य करने लगे और विचार करने लगे कि चन्द्रगुप्त मुनिराज के पुण्य से ही देव लोग