Book Title: Aptavani Shreni 02
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Dada Bhagwan Aradhana Trust

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Page 16
________________ - 'प्रकृति' विज्ञान पूरा-पूरा कौन समझा सकता है? जो खुद 'पुरुष' हो चुके हों और प्रकृति को निरंतर भिन्न देखते हों, वे ही यथार्थ प्रकृतिविज्ञान समझ सकते हैं, समझा सकते हैं। बाकी, जो खुद ही प्रकृति स्वरूप हों, 'पुरुष' नहीं हुए हों, वे प्रकृति को किस तरह पहचान सकते हैं? और किस तरह समझा सकते हैं? इसमें तो 'ज्ञानीपुरुष' का ही काम है। अनंत आत्माएँ हैं और अनंत प्रकृतियाँ हैं। जब तक खुद पुरुष नहीं हो जाता, तब तक वह प्रकृति के नचाने से नाचता है। क्रमिक मार्ग में प्रकृति क्रमशः सहज होती जाती है, तब अंत में सहज आत्मा प्राप्त होता है। जबकि अक्रम मार्ग में 'ज्ञानीपुरुष' आत्मा को सीधे ही सहज स्वभाव में ला देते हैं। फिर प्रकृति को सहज करना बाकी रहता है, और प्रकृति सहज किस तरह से होती है? तब कहे, प्रकृति की जो-जो फाइलें खड़ी हों, उनका समभाव से निकाल करे तो फिर उनसे मुक्ति प्राप्त हो जाती है, उसके बाद सहज प्रकृति शेष रहती है! "मोक्ष में जाने के लिए कोई मनाही का हुक्म नहीं है, मात्र ‘खुद' को खुद का भान होना चाहिए। कोई त्यागी प्रकृति होती है, कोई तप की प्रकृति होती है, कोई विलासी प्रकृति होती है, जो हो सो, मोक्ष में जाने के लिए मात्र प्रकृति खपानी होती है।" _ 'प्रकृति पूरण-गलन स्वभाव की है और खुद अपूरण-अगलन स्वभाव का है।' - दादाश्री वीतराग निरंतर खुद की प्रकृति को ही देखा करते थे। जब 'खुद' प्रकृति का ज्ञाता-दृष्टा रहे, तब वह विलय हो जाती है। 'केवलज्ञान की अंतिम निशानी यही है कि खुद की ही प्रकृति को देखता रहे।' ___- दादाश्री प्रकृति का स्वभाव कैसा है? प्रकृति बालक जैसी है। प्रकृति के पास से काम निकाल लेना हो तो बालक की तरह समझा-बुझाकर, फुसलाकर काम निकाल लेना है। बालक को समझाना, वह आसान बात है लेकिन यदि उसके प्रतिपक्षी हो जाओ, तो प्रकृति बिफरे ऐसी है। इसलिए 15

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