Book Title: Apbhramsa Bharti 2007 19
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 18
________________ अपभ्रंश भारती 19 का साक्ष्य विद्यमान है।" वे मनुष्य और प्रकृति का मनोरम सौन्दर्य चित्र खींचते हैं, सौन्दर्य याने नियमितता एवं चैतन्य की इंद्रियगोचर अभिव्यंजना। “सामान्य मनुष्य व्यावहारिक क्रिया में जिन भावों का विलय करता है, उन आंतरिक भावों को उत्कटता तक लेजाकर कलाकार उनका विलय कलाकृति में करता है। इन आंतरिक क्रियाप्रवण भावों का रूपान्तरण कलात्मक भावना में - सौन्दर्यभावना में होता है।" उपमान-प्रयोग में कवि स्वयंभू की विलक्षण प्रतिभा का वैभव ‘पउमचरिउ' में बिखरा हुआ है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी हिन्दी-साहित्य के इतिहास को अपभ्रंश-परम्परा से सम्बद्ध करते हुए भक्तिकाल पर पड़े इसके विशिष्ट प्रभाव के विश्लेषण को पर्याप्त विस्तार देते हैं। स्वयंभू ने परम्परा से प्राप्त ‘रामकथा' को अपनी कल्पना से एक नया रूपायाम भी दिया है। और परवर्ती हिन्दी साहित्य के विविध कालों में प्राप्त परम्परा - वीरगाथा काल की युद्ध-वर्णन शैली, भक्ति-रीति-धारा के भक्ति-शृंगार-वर्णन की सुदृढ़ परम्परा, उपमान-प्रयोगों, ध्वनि-प्रयोगों, शब्दावृत्तियों, ध्रुपद, पद्धड़िया बन्ध से विकसित दोहा-चौपाई की पुष्ट शैली को भी विकास दिया है। रावण का दशानन होना, समुद्र में शिलाओं का तैर जाना, सेतु-बन्धन आदि प्रसंगों को वे विज्ञान-बुद्धि द्वारा सहज बनाते हैं। अपने बाल-रूप में क्रीड़ा करता दशानन भण्डार में प्रविष्ट हो तोयदवाहन का हार देखता है जिसमें मणियों से जड़े नौ मुख हैं। उस हार को धारणकर रावण उसमें जड़ी मणियों में अपने मुख-बिम्ब के उभरनेवाले प्रतिबिम्बों से सुशोभित होकर दशानन के रूप में प्रसिद्धि पाता है - सहसत्ति लग्गु करे दहमुहहों। मित्तु सुमित्तहो अहिमुहहों। परिहिउ पाव-मुहइँ समुट्ठियइँ। णं गह बिम्बइ सु-परिट्ठिय। णं सयवत्तइँ संचरिमइँ। णं कामिणि-वयण कारिमइँ । पेक्खेप्पिणु ताइँ दहाणणइँ थिर-तारइँ तरलइँ लोयणइँ। ते दहमुहु दहसिरु जणेण किउ पञ्चाणणु जेम पसिद्धिगउ।9.4। नाना क्षेत्रों से उपमान चयनकर वे उनसे उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, सन्देह आदि अलंकारों का सुन्दर-विधान तो करते ही हैं; श्लेष, अपह्नुति, उल्लेख आदि के प्रयोग में भी उनकी प्रतिभा उभरी है। केशवदास अलंकारों को - 1. साधारण 2. विशिष्ट - दो रूपों में विभाजित करते हैं। सामान्य अलंकारों को उन्होंने वर्ण, वर्ण्य, भूमिश्री, और राजश्री चार प्रकारों में रखा है। डॉ. भगीरथ मिश्र साधारण अलंकारों को वस्तु-वर्णन

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