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अपभ्रंश भारती 19
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29. धम्म-णिमित्तें घरु-घरिणि, जसु मणु णिछउ हुँति।
तसु जय सिरि 'सुप्पउ भणई', इह रहं कहव न भंति॥30॥
अर्थ - सुप्रभ कहते हैं - जिसका मन धर्म के निमित्त/सहयोग से घर तथा घरिणि (स्त्री, पत्नी) के प्रति निश्चिन्त (विकल्परहित) हो जाता है उसको विजयश्री (लक्ष्य में सफलता) (प्राप्त) होती है, इसमें किसी प्रकार की भ्रान्ति नहीं है।
30. पर-पीडइ धणु संचियइ, ‘सुप्पउ भणइ' कुदोसु।
वंधणु-मरणु विडंबु तह, इहु तहु अत्थि विसेसु॥31॥
अर्थ - सुप्रभ कहते हैं - दूसरों को पीड़ित/दुःखी करके धन का संचय करता है यह बहुत बड़ा दोष है। उस धनवान का यहाँ-वहाँ (हर जगह) बंधन-मरण की विडंबना और तिरस्कार ही शेष रहता है।